Sunday, October 31, 2010

जुआ

ये आवारगी भी उन्ही की दुआ समझो|
कोई ख्वाब आँखों में दफ्न हुआ समझो||

चर्चे हैं उसकी बेवफाइयों  के भी अब,
ये आग ही है तभी धुंआ समझो ||

इस वहशत में ज़रा कुछ और ही हैं रंग,
उसने गीत मेरा लब से छुआ समझो||

"पावन सी कहानी" कहते हैं लोग इश्क को,
 जो तकदीरों से चले, बस जुआ समझो||

Tuesday, October 26, 2010

अरुंधती राय के लेख के विरुद्ध याचना...

 अरुंधती राय को तो बस एक ही पद से सम्मानित  करना चाहिए "राष्ट्रद्रोही"|
 मेरे विचार से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इतनी भी नही होनी चाहिए कि अपनी ही धरा के विरुद्ध अशोभनीय लेख लिखते रहें|
जिस धरती से रोटी मिली उस पर ही जहर उगलने वाले लोग हैं ये,उनका लेख बस उनका मानसिक दिवालियापन ही दर्शाता है| इनता कृत्य शायद भारत के अतिरिक्त कहीं भी क्षम्य नही होगा| यहाँ भी नही होना चाहिए क्यों कि यह विष पान करने जैसा है!
मेरा  सभी भारतीय रचनाकारो से निवेदन है कि इसका प्रतिउत्तर आप ही अपनी शैली में अरुंधती जी  को दीजिये!
आप ही  भारतीयता एवं भारतीय लेखन शक्ति के दुर्पयोग को रोक सकते हैं|नही तो अभिव्यक्ति का अधिकार इस राष्ट्र के लिए अभिशाप से कम न होगा.......

Friday, October 22, 2010

कुछ वक़्त के लिए थाम लिए थे अपने हाथ...पर अब फिर से प्रस्तुत हैं कुछ पंक्तियाँ.......

पतझर भी अजीब थे,बरसात भी अजीब हैं;
लोग भी अजीब हैं,उनकी बात भी अजीब हैं|

बदलते हैं बस बयार के मयार पे ही;
आदमी अजीब हैं,और जात भी अजीब हैं|

ना आया लौट कर फिर,जो हमराही था मेरा
उसकी कसमें अजीब हैं, वायदात भी अजीब हैं|

फासलों से नही है शिकायतें अब किसी को ;
वो दूर  भी अजीब थे ,वो पास भी अजीब हैं|

कब तक गीतों की राहें देखीं जाएँ अब?
वो धुन भी अजीब थीं, वो साज़ भी अजीब हैं|

जब  परखा ही नही तुमने कभी  ,तो तुम्हारे लिए,
हम कल भी अजीब थे हम आज भी अजीब हैं.............

Friday, October 8, 2010

हमारा मीडिया

पिछले दिनों एक निजी समाचार चैनल पर एक अजीब सा द्रश्य प्रसारित किया जा रहा था, स्थान था आगरा में यमुना नदी का एक पुल| पुल पर बड़े बड़े विद्युत के खम्बे लगे हुए हैं, जिन खम्बों पर चढ़-चढ़ कर कुछ बच्चे उफनती कालिंदी में छलांग लगा रहे थे| बच्चों की उम्र भी तकरीबन बारह से सत्रह वर्ष की रही होगी| बच्चे नासमझ ही थे केवल अपने आनंद के लिए वे ये हरकतें कर रहे थे| पुल पर काफी भीड़ ये सब देख रही थी |
इन सब के बीच संवाददाता चीख रहे थे- "देखिये इन बच्चों को जो बिजली के खम्बों पे चढ़ कर यमुना में छलांग लगा रहे हैं.....खम्बों से करंट भी आ सकता है.........नदी का बहाव भी बहुत तेज़ है, पर ये बच्चे फिर भी लगातार कूद रहे हैं..........और देखिये इन लोगों को जो सब खड़े हो कर तमाशा देख रहे हैं.. कोई भी इन्हें रोक नही रहा है...देखिये ..देखिये...???? का सीधा प्रसारण........ सबसे पहले हमारे द्वारा आप तक पहुँचाया.."| शाम का समय था लोग बड़े चाव से टेलीविजन में ये सब तमाशा देख रहे थे|
  हालांकि ऐसी खबरें रोज़ ही आतीं हैं, सामान्य सा ही है अब तो ये लोगो के लिए| लोगों ने आश्चर्य करना लगभग बंद सा ही कर दिया है, क्यों कि कब तक आश्चर्य करेंगे? रोज़ कुछ न कुछ अजीब ही होने लगा है अब तो| परन्तु इन सब के बीच में ये प्रश्न उठता है कि जब वे बच्चे कूद रहे थे, और लोग खड़े हो कर देख रहे थे; तब मीडिया कर्मी क्या कर रहे थे? लोग तो सिर्फ तमाशा देख रहे थे और आप उस तमाशे की वीडियो बना रहे थे,टी.आर.पी. और चंद रुपयों के लिए|
 प्रश्न उठाये जाने चाहिए मीडिया कर्मियों पर,
"क्या आप इस देश के नागरिक नही हैं ?"
"क्या आपके मूल कर्त्तव्य नही है ?"
 "क्या टी.आर.पी. के आगे मानवता का कोई महत्व नही है ?"
"क्या आप चैनल की भक्ति में इतने डूब गये हो की इस देश के लोगो के प्रत्ति अपना दायित्व भूल चुके हो ?"
आपका धर्म था उन बच्चों को रोकना; लोग रोकें न रोकें आपको रोकना चाहिए था! आप जिम्मेदार नाम से जुड़े हुए हैं जो की आम नागरिक से अलग है| पत्रकार का बड़ा सम्मान होता है; देश के बाहर जब कहीं पत्रकार जाता है, तो वह हमारे देश को प्रस्तुत करता है; उस व्यक्ति द्वारा ऐसी तुच्छ और बेहूदा हरकत शोभनीय नही होती|
 ये सिर्फ एक आगरा या किसी पुल की घटना नही है; आधुनिक मीडिया कर्मियों का व्यवहार हर स्थान पर उदासीन ही रहता है|
समस्या का समाधान होने के बाद भी वे समस्या को बढ़ा कर घटना और घटना से "सनसनीखेज खबर" बनाने पे अधिक ध्यान देने लगे हैं|
    क्या हम ऐसे ही महान भारत का मिथ्या स्वप्न देख रहे है? हम लोग तकनीकी और मशीनी विकास की धुन में नैतिकता को बिलकुल ही भुलाने लगे हैं, ये तो तरक्की नही है! मानवता को खोकर विकास किया तो किस काम का ? ये आत्म-संतोष तो दे ही नही सकता; और साधन तो बनाये ही जाते हैं संतोष के लिए | फिर ये कैसी प्रगति है? जिसमें विचारों और सभ्यता का हनन ही देखने को मिल रहा है! "जो गलत हो रहा है उसे बदलने की कोशिश की जाती है न कि उसकी खबर और खबर से पैसा बनाया जाये", तब ही आप भारतीय हो और तब ही भारत महान होगा| सच तो ये है कि हमारा भारत महान था, जब वो कुछ लड़के रहते थे यहाँ; जो दीवाने थे इस देश के और सच्चे रखवाले थे देश के लोगो के! संविधान के न होते हुए भी, उन्हें अपने कर्तव्यों  का बोध था, निभाते भी थे; अधिकारों का ज्ञान भी था, बस वही दिलाने की ज़द्दोजेहद में चले गये| वे लोकप्रिय भी हुए पर ना किसी चैनल से, ना किसी भाषण से , ना विज्ञापन से, ना किसी साक्षात्कार से| वे लोकप्रिय हुए तो अपने धर्म से, कर्म से, अपनी निष्ठा से! और हम सबके आदर्श बन गये|
और सच कहूँ तो बस वे ही सफल थे............
                                                                                                                          -पुष्यमित्र उपाध्याय

Wednesday, October 6, 2010

एक शाम उदास सी.........

मन के चीत्कारों को दबाये गहरी श्वास सी;
आम रास्तों में  गली एक ख़ास सी|


कुछ बेचैनी  है सोच के जंजाल में अभी;
उल्लासित अभिनय पर आँखें उदास सी|


कर लिया है ज़द में समंदर भी अब तो;
बाकी है फिर भी जन्मो की प्यास सी|


अँधेरे भी कट जाते हैं नूर की चाहत में यूँ तो
 पर खामोशियो में गूंजे है तेरी आवाज़ सी.....

Monday, October 4, 2010

ख्वाब हूँ मैं...

फूलों के बीच काँटों सा पला हूँ...
शायद एक ख्वाब हूँ रात भर जगा हूँ|

उम्मीदों कि गठरी सी लादे सीने पे,
पत्थरों के शहर आ निकला हूँ|

ठोकरों से शिकवा नही रहा कभी,
गम  बस इतना है कि तुझसे आ मिला हूँ|


तेरे बेगानेपन से नही ऐतराज़ मुझे कोई,
मगर तुझसे न किया,वो गिला हूँ |

मेरी मंजिलें मिटाना आदत है तुम्हारी;
वरना इस सफ़र में बहुत दूर चला हूँ...................

Saturday, October 2, 2010

क्यों चलता है ये वक़्त इतना तेज..........


कभी कभी
एक प्रश्न गूंजता है मन  में,
कुछ पुराने ,
न भूलते चेहरों के लिए,
ह्रदय पूछ लेता है "क्या तुम उनसे फिर कभी मिल पाओगे?"
प्रश्न सामान्य ही है|
पर उत्तर मष्तिष्क देता है;
अपने अनुभव,गणनाओं ,सूत्रों और
निर्भीक सत्यता के आधारों पे..."अब शायद कभी नहीं  "
ये सामान्य नही होता!
एक सिहरन सी दौड़ जाती है शरीर में;
 बेचैनी,घुटन सी होने लगती है साँसों में;
फिर याद आने लगते हैं वो चेहरे;
रोंगटे खड़े हो जाते है..इस उत्तर से!
बहुत ही झुंझलाकर मन कहता  है:
"क्यों इतनी दूर चले आये हम? "