Wednesday, January 19, 2011

"राष्ट्रवादिता"! समस्या या सबसे बड़ा समाधान????

कुछ लोगों की शिकायतें अक्सर तभी बढती हुई देखी जातीं हैं, जब भी यहाँ संस्कृति को बचाने की मुहिम शुरू की जाती है; कुछ लेखिकाएं  राष्ट्रवादिता को समस्या मानतीं है (सभी लेखिकाओं के लिए नहीं)| समझ ही नहीं आता कि ये राष्ट्रवादिता और संस्कृति को ही अपनी उपेक्षा का कारण क्यों ठहराते हैं? जबकि भारतीय संस्कृति पूरी तरह नारी शक्ति पर आधारित है| इनके विषयों में नारी मुक्ति के उपाय, राष्ट्रविरोधी बयान और संस्कृति की आलोचना ही अधिकतर देखने को मिल रही है| राष्ट्र चिंतन के लेखों में भी घुमा फिरा कर व्यक्तिगत या सामाजिक आलोचनाओं पर मुद्दे को ले आया जाता है| हालाँकि इस विलक्षण लेखन शक्ति का प्रयोग कुछ नए सुझावों, योजनाओं के लिए भी किया जा सकता है|
   राष्ट्रवादी होना बुरा नहीं है! मैं ऐसा सिर्फ एक राष्ट्रप्रेमी होने के नाते नही लिख रहा हूँ, बल्कि इसमें मुझे तर्क भी ठीक ही लगते हैं| "लोहे को काटने के लिए लोहा ही बनना पड़ता है!" जितनी तेज़ी से इस देश ने भौतिक उन्नति की है; उतनी ही तेज़ी से यहाँ के नागरिकों की नैतिक अवनति भी हुई है| अब यदि नैतिकता और राष्ट्रप्रेम को पुनः लाने के लिए, प्रयास कट्टर सीमा तक पहुँच रहे हैं, तो इसमें इतना बवाल मचाने वाली क्या बात है? आखिर इतनी तीव्र सांस्कृतिक हानि की भरपाई के प्रयास भी तीव्र ही होने चाहिए! जब भारत में देश-प्रेम, संस्कृति, सभ्यता जो कि  १८ सभ्यताओं के आक्रमण के उपरान्त भी अक्षुण रही, का हनन, हरण, और पाश्चात्यीकरण हो रहा था, तब इन्होने विरोधी स्वर नही उठाये? क्यों कि ये सब पाश्चात्य कों अपनी स्वतंत्रता का मसीहा समझने लगे हैं, जबकि यही इस राष्ट्र के पतन का कारण है! फिर चाहे वो "आर्थिक पतन" हो या "आध्यात्मिक पतन" या "सामाजिक पतन"|
      कुछ लोग जाग रहे हैं पिछले कुछ समय से! भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर विमल जालन, पूर्व जस्टिस बी.एन.कृष्ण, जमशेद गोदरेज और अज़ीज़ प्रेमजी ने पत्र के माध्यम से, बाबा रामदेव ने शिविरों के माध्यम से, कवियों ने मंचों के माध्यम से अपनी बात रखी, जिसे जो तरीका ठीक लगा है, उसी से अभिव्यक्त किया अपने राष्ट्रप्रेमी विचारों को| परन्तु लक्ष्य एक ही है "राष्ट्रहित"! ये सब भी राष्ट्रवादी ही हैं| ऐसे में यदि एक वर्ग ऐसा भी आगे आया जिसे उपरोक्त प्रयास अपर्याप्त लगे, और अधिक तीव्रता से राष्ट्र-चेतना जगाने के प्रयास किये,तो इसमें चिंतन क्यों? अब इसे कट्टरवाद कहो या कुछ और! पर ये वैसा ही है, जैसे स्वाधीनता संग्राम में "गरम दल और नरम दल" की भूमिका थी|
लक्ष्य बस "भारत की स्वतंत्रता" ही था! तो क्या गलत जब कुछ नये खून वाले अपनी सभ्यता को बचाए रखने के लिए अतिवादी हो गये? क्यों इन तुच्छ विचारों वाले लेखकों की कलम तन जातीं हैं, जब बात हमारी संस्कृति की आने लगती है? क्यों हमारी तुलना पाकिस्तान से करने दी जाती है?
    भगत सिंह और नेताजी के तरीकों को भी गलत बताया गया था! माना आज़ादी उनके तरीकों से नही मिली, परन्तु सच तो यह है की आज़ादी मिली ही नही! "हम पहले अंग्रजों के गुलाम थे आज हम अंग्रेजी के गुलाम हैं"| "पहले एक कम्पनी हमारे देश को लूट रही थी आज हजारों कम्पनियाँ इस देश का खून चूस रहीं हैं" और साथ में विचारों को भी; हम उनके द्रष्टिकोण से दुनिया देख रहे हैं! पहले एक रानी हम पे राज़ करती थी,आज उस रानी की जबान राज़ कर रही है! यदि तरीके भगत सिंह और नेताजी के अपनाये गये होते तो अभी हम लोग राज़ कर रहे होते, ये गद्दार आवाजें फिर ना उठतीं, और ना उठता कोई पाकिस्तान हमसे कट्टरवादी तुलना करवाने के लिए..............

1 comment:

  1. दशहरे पर
    हमारी एक कविता
    ******************
    हमें भी राम बनना होगा
    ******************

    हर ओर हैं रावण
    राम के आगे
    कब तक रोएंगे

    फूलों की
    धरती पर
    कब तक
    काँटों की
    गठरी ढोएंगे

    समर भयंकर
    सम्मुख सेना में
    लाखों रावण हैं

    उनके हाथों
    जीवन अपना
    कब तक खोएंगे

    मस्तक नीचा करके
    ऐसे ही पिटते रह कर के

    लुटता चीर सच्चाई का
    कब तक देखेंगे

    शान अगर सच की
    ऊँची रखना है

    तो अबकी
    विजय दशमी पर

    विजय का उद्घोष
    हमें भी
    करना होगा

    भर हुँकार

    रावण से
    हमें भी
    लड़ना होगा


    धूल-धूसरित
    रावण का मस्तक करने को

    प्रत्यंचा पर
    तीर चढ़ा

    रावण की नाभि के
    अमृत कलश पर
    साध निशाना

    संधान अचूक
    करना होगा

    इस बार
    दशहरे पर
    हमें भी
    राम बनना होगा

    इस बार
    दशहरे पर
    हमें भी
    राम बनना होगा

    दशहरे की अनंत शुभकामनाओं के साथ
    SANJEEV GAUTAM CREATIVE COPY WRITING DESK

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