Wednesday, December 26, 2012

कैसी ग़ज़ल?


कैसी नज़्म
कैसी ग़ज़ल
कैसे सजाऊँ मतले
कैसे बिछाऊं हर्फ़
कोई चौराहे पर लुट जाए
कोई तेजाब से झुलसे
कोई ज़िंदा जले
कोई जिंदगी को तरसे

और मैं!

ग़ज़ल बाधूं?
काफिये मिलाऊं?
लफ्ज़ तो साथ ना देंगे!
ईमान तो बगावत करेगा!

जले हुए गुलशन में
खुशबू की बात करूँ
चीखों में
राग छेड़ूँ ?

आसान होगा तुम्हारे लिए
हैवानों से भरी रात में
लोरी सुनकर सो जाना,
मगर मेरे लिए ये जरुरी है
कि मैं जगने की बात करूँ
मैं लड़ने की बात करूँ
आज अगर सो गये
तो
फिर कोई लूटेगा
फिर कोई लुटेगा

मगर किसी रात...... तुम्हारी भी नींद उड़ जायेगी
तुम्हे भी अच्छे लगेंगे...ये मुखड़े...ये अंतरे
और तब शायद तुम
सोने की बात करोगे
....इसलिए जागो और लड़ो...
एक रात सोकर ........
शायद उम्र भर की नींद मिल जाए................
-

पुष्यमित्र उपाध्याय

Monday, December 17, 2012

"पदोन्नति में आरक्षण

"पदोन्नति में आरक्षण" ये जिन फिर बोतल से बाहर आ गया है, शायद ये ही एक साधन था FDI  के विरुद्ध एक जुट हुए महावर्ग को विखंडित करने का| शासन पूरी तरह इसमें सफल हुआ, आज दलित एक तरफ है सवर्ण एक तरफ और देश भर में भारी विरोध और अंतर्कलह की स्थिति बन चुकी है| व्यवस्था, बहुमत, अधिकार, संविधान, शक्ति और प्रबंधन का दुरुपोग शासन द्वारा जिस तरह किया जा रहा है वह नैतिकता और नीयत के काफी नीच स्तर को दर्शाता है| लोकतंत्र और संविधान ने साधारण नागरिक को क़ानून निर्माण में कोई भी प्रत्यक्ष हस्तक्षेप का अधिकार ना देकर पंगु ही बना दिया है जिसका राजनैतिक लाभ सभी दल आज उठा रहे हैं| किन्तु फिर भी यह एकपक्षीय निर्णय प्रश्न तो खड़े करता ही है कि एक तरफ FDI को लेकर आर्थिक उन्नति का बहाना दिया जाता है, दूसरी तरफ योग्यता को लात मार कर उन्नति जैसे शब्दों को अर्थ हीन कर दिया जाता है| निर्माण, उद्योग, शिक्षा, प्रबंधन, सुरक्षा आदि ऐसे क्षेत्र हैं जो कि प्रत्यक्ष रूप से देश की अर्थव्यवस्था और विश्वपटल पर देश की उन्नति का निर्धारण करते हैं| ऐसे में यह जरुरी है कि इन क्षेत्रों में चुने जाने वाले कर्मी/अधिकारी सम्बंधित क्षेत्रों के लिए आवश्यक योग्यता रखते हों, और पदोन्नति भी कार्यअनुभव और उपलब्धियों के आधार पर की जाए|
    राजकीय पाठ्यक्रमों में " औद्योगिक मनोविज्ञान" यही कहता है कि हर उद्योग मूलतः "निम्नतम निवेश और अधिकतम लाभ" के उद्देश्य को लेकर संचालित किया जाता है और इसके लिए वे "सही काम पर सही व्यक्ति " के सूत्र का अनुसरण करते हैं| फिर भी राष्ट्रीय लाभ को ताक पर रख राजनैतिक लाभ का जो पथ सभी दल अपना रहे हैं , वे उन्हें किसी भी रूप में देश के नेतृत्व का नैतिक अधिकार नहीं देते| अयोग्य को सहारा देकर महत्वपूर्ण पद पर बैठा देना न सिर्फ व्यवस्था का मज़ाक है बल्कि एक असंतुलित परिवेश को जन्म देना भी है| शासन की नीति सिर्फ समाज को विखंडित करने की है, जैसे जैसे आरक्षण का दायरा बढ़ता जा रहा है, सामजिक ढाँचे टूटते जा रहे हैं, अच्छे मित्र भी कटुता के भाव रखने लगे हैं| उपेक्षा ख़त्म हो रही है शत्रुता बढ़ रही है| असंतोष फ़ैल रहा है|
    समाज का बंटना भले ही राजनैतिक दलों के लिए लाभ का विषय हो, किन्तु यह भी सत्य है धीरे धीरे सभ्य और शिक्षित नागरिकों के मन में लोकतंत्र, संविधान, नीति और व्यवस्था के प्रति निरादर भावों का संचार हो रहा है| लोकतंत्र के क्रूर और अन्यायी निर्णयों ने जनमानस को इस तरह से प्रताड़ित किया है कि उन्हें देश के प्रति प्रेम और संविधान के प्रति आदर का कोई कारण नज़र नहीं आता| और ये सच भी है भारत का सिर्फ इतिहास गौरवशाली है, वर्तमान तो नरकीय है| कहने को अधिकारों की एक पूरी सूची है किन्तु फिर भी व्यक्ति पंगु है वह किसी भी स्थिति का विरोध नही कर सकता, विरोध भी शासन तय करता है कि कितना होगा, कब तक होगा, कहाँ होगा और क्यों होगा| उनके पास शक्तियां हैं, जब भी विरोध उन्हें असहज या अधिक हानिकारक लगता है वे उसे कुचल देते हैं| ये सभी बातें नागरिक समझने लगे हैं किन्तु सबसे अधिक दुर्भाग्य की बात ये है जिस राजनैतिक लाभ के लिए सभी दल ऐसा कर रहे हैं लोग उस लोकतंत्र को मानना ही बंद कर दें तो? क्या वे स्वतः ही तानाशाही को निमंत्रण नहीं दे रहे हैं? उत्तरप्रदेश शासन ने आरक्षण का विरोध कर के जो जनसमर्थन हासिल किया है वह मात्र भी मात्र एक ढोंग ही है यदि यही आरक्षण, मुस्लिमों और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए होता तो वे भी उसी आरक्षण समर्थकों की कतार में होते जिसमे कि सभी दल खड़े हैं| नाम अलग हैं किन्तु सभी मिलकर लोकतंत्र के सर्वनाश की नींव रख रहे हैं|
      बात किसी के उत्थान को रोकने की बिलकुल नहीं है बात है योग्य को दुत्कार कर अयोग्य के हाथ में महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व देने की है| ये गलत चयन का ही परिणाम है कि सूचना क्रांति होने के इतने वर्षों के बाद भी भारत तकनीकी के क्षेत्र में बहुत पिछड़ा है| आज भी आप देखिये अधिकतर महत्वपूर्ण राजकीय वेबसाइट्स ठीक प्रकार से कार्य नहीं करतीं| ये उस दौर का हाल है जब हर कार्य को इन्टरनेट से जोड़ने का कार्य किया जा रहा है| ऐसे में और गलत चयन देश को किस दिशा में ले जाएगा ये तो शायद ईश्वर ही जान पाए| मुझे अधिकार और सामर्थ्य बस इसका लिखित विरोध करने तक ही दिए गये हैं जो मैं पूरी तरह से करता हूँ...शेष राम भला करे.....और कुछ ज्यादा कह गया हूँ तो श्री राम से क्षमा का प्रार्थी हूँ

कीजे क्षमा दोष त्रुटी स्वामी
राम नमामि नमामि नमामि

-पुष्यमित्र उपाध्याय

Thursday, December 13, 2012

पता तो चले

और कितनी है जुदाई पता तो चले
वो मेरी है या पराई, पता तो चले

यूं बहारों पे कब्ज़ा यूं फिजाओं पे हुक्म
अदा ये किसने सिखाई पता तो चले

कँवल खिलने लगे अब्र जलने लगे
किसने ले ली अंगडाई पता तो चले

ये किसने छुआ है, ये किसका नशा है
ये कली क्यों बलखाई पता तो चले

चाँद खिलने लगा गुल महक से गये
मेहँदी किसने रचाई पता तो चले

खोलकर आज गेसू वो मुस्कुरा गये
मौत किसपे है आई पता तो चले

गनीमत यही उन्हें मुहब्बत तो हुई
कुछ उन्हें भी तन्हाई पता तो चले

-पुष्यमित्र उपाध्याय

फूल ताउम्र तो बहारों में नहीं रहते

फूल ताउम्र तो बहारों में नहीं रहते
हम भी अब अपने यारों में नहीं रहते

मुहब्बत है गर तो आज ही कह दो मुझसे
ये फैसले यूं उधारों में नहीं रहते

अब जानी है हमने दुनिया की हकीकत
अब हम आपके खुमारों में नहीं रहते

दिल तोड़ दो बेफिक्र कोई कुछ न कहेगा
ये छोटे से किस्से अखबारों में नहीं रहते

मेरा रकीब भी आज मेरी खिलाफत में है
लोग हमेशा तो किरदारों में नहीं रहते

बस वजूद की ही जंग है महफिलों में बाकी
वो तूफ़ान भी अब आशारों में नही रहते



-पुष्यमित्र उपाध्याय

Wednesday, December 12, 2012

समंदर

बिना तुम्हारे भी
देखो मेरी कश्ती, चल तो रही है
पतवार भी है
और मैं भी
दूर दूर तक समंदर है
नीला नीला
अपनी धुन में बहता हुआ
कोई लहर छेड़ जाती है
कोई सहारा ही दे जाती हैं
कोई कोई डरा भी देती है
मगर अब ज्यादा डर नहीं लगता
अकेला हूँ न!
यहाँ हवाएं हैं...मौसम है....
और गुनगुनी धूप भी
सब रंग देखता हूँ तुम्हारे बिना भी
हाँ मगर
मुझे पता नहीं कि किनारे कहाँ हैं
शायद पीछे छूट गये हों
मैंने देखा न हो
वो जो पतवार है ना
उसे कई दिनों से छुआ नहीं मैंने
अब कश्ती का रुख हवा तय करती है
और मंजिल..................
नहीं अब इसकी जरुरत भी नहीं
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Monday, December 10, 2012

सर्दियां

उस साल
कहर सी थी सर्दी
ठिठुरन बढ़ रही थी
हमने जेहन में खड़े कुछ दरख्त काटे
और जला लिए कागज़ पर
ज्यादा तो नहीं मगर हाँ....
थोड़ी तो राहत मिल ही गयी
पास से गुजरते हुए लोग भी
तापने के लिए बैठने लगे
अलाव धीरे धीरे... महफ़िल सा बन गया
 अलाव जब बुझ गया ..लोग चले गये
फिर तो
रोज़ ही हम कुछ दरख्त काट लाते
रोज़ अलाव जलता रोज़ ही लोग आते
इस तरह हर रोज़ महफ़िल सजने लगी
मगर एक ताज्जुब ये था कि
रोज़ ही काटे जाने पर भी
दरख्त कभी कम नहीं होते थे
एक भी नही....

-पुष्यमित्र

 

Thursday, November 29, 2012

ज़िंदा हूँ

फूल ही सही मगर ख़ारों में ज़िन्दा हूँ
मय बनकर ही तलबदारों में ज़िंदा हूँ

मैं इश्क हूँ मुझे आशारों में न ढूंढ
मैं तेरी आँख के इशारों में ज़िन्दा हूँ

मुझे आसमाँ की आज़ादी मिली न कहीं
मैं तेरी याद के इज्तिरारों में ज़िन्दा हूँ

न दे गवाही मुझे इनकारों की तमाम
मैं तेरे खामोश इकरारों में ज़िंदा हूँ

ये माना कि किश्ती है जलजलों में अभी
मैं मगर उम्मीद के किनारों में ज़िन्दा हूँ

-पुष्यमित्र उपाध्याय

Friday, November 9, 2012

श्री डेंगू जी : "एक अमर गाथा"

यूं तो हमारे देश में कई क्रांतिकारी कई देशभक्त आये| कोई नोटों तक पहुंचा कोई गुमनामी में खो गया, किसी को चर्चे मिले कोई किताबों में सो गया| मगर उन्होंने अपना कर्तव्य कभी नहीं छोड़ा, आजादी के बाद भी अनेक क्रांतिकारी यदा-कदा देश में आते-जाते रहे| जब-जब शासन अपनी शक्तियों और कर्तव्य को भुला कर कुछ भी करने में अक्षम रहा, वे देशभक्त उन्हें कर्तव्य बोध कराते रहे|
   ऐसा ही कर्तव्य बोध हाल ही में हमारे देश के एक वीर क्रांतिकारी द्वारा सरकार को कराया गया| ये वीर कोई और नही बल्कि परम साहसी, अत्यंत हठीले, बेशर्मीले और सुरों के सरताज श्री डेंगू महाराज थे| इन्होने अपने प्राणों की परवाह किये बगैर ही अनेक भारतीयों के हत्यारे 'कसाब' को काट खाया| वीर डेंगू जी ने जब देखा कि शासन और प्रशासन इतने वर्षों के बाद भी उस हत्यारे को सजा दे पाने में अक्षम है, तो ये बीड़ा उन्होंने स्वयं उठाया!
 जैसा कि हम सभी जानते हैं कि आर्थर मार्ग कारागार में सुरक्षा काफी कड़ी है, शासन की मर्ज़ी के बिना वहां बिरयानी तो क्या हवा भी नही जा सकती, बिना आज्ञा वहां जाने का अर्थ है या तो गोली का शिकार होना! या फिर कसाब का भोजन बनना! किन्तु फिर भी यदि निश्चय दृढ़ हो, अटल संकल्प हो और देश के लिए कुछ कर जाने की अखंड भावना हो तो बड़े-बड़े पहरे भी किसी को नही रोक सकते|
     ऐसी ही दृढ़ता और ओजस्वी भावनाएं लिए, वीर डेंगू अक्तूबर २०१२ की एक रात आर्थर मार्ग के लिए निकल पड़े| वे जानते थे कि शासन ने कसाब रक्षा हेतु बड़े-बड़े महा अस्त्र-शस्त्र, जैसे:- मार्टीन, आलआउट,गुड नाईट, मैक्सो, कछुआ, खरगोश, बिल्ली आदि आदि तैयार रखें होंगे| किन्तु उन्हें उस समय सिर्फ देशवासियों की भावनाओं की चिंता थी| वे सभी घेरों और हथियारों से जूझते-बचते कसाब तक पहुँच ही गये! और उन्होंने आनंद में डूबे कसाब पर जम कर हमला बोला और चुन चुन कर काटा| इससे कसाब विचलित हो गया और बौखला कर कारागार प्रबंधन और सुरक्षा कर्मियों को डांटने लगा इसके बाद तुरंत ही प्रबंधन द्वारा सभी अस्त्र-शस्त्र डेंगू जी की और मोड़ दिए गये और यथा संभव हमले किये गये| बताते हैं करीब एक घंटे तक वीर डेंगू जी कसाब और प्रबंधन से लड़ते रहे| वे भागे नहीं और लड़ते लड़ते ही शहीद हो गये| उनका योगदान अविस्मर्णीय है|
   घायल कसाब को शासन ने तुरंत ही उपचार हेतु भेज दिया जिससे उस दुष्ट की जान तो बच ही गयी परन्तु डेंगू जी के प्रयास सचमुच बड़े थे| डेंगू जी के जीवन के बारे  में इतिहासकार ज्यादा नहीं जान पाए; किन्तु जितना उल्लेख मिलता है उसमें यही है कि डेंगू जी अत्यंत साधारण जीवन जीते थे| उनका जन्म कोर्डेटा धर्म की अर्थ्रोपोड़ा जाति के, एक मध्यम वर्गीय मच्छर परिवार में हुआ था| उनके पिता अपने काल के महान संगीतकार थे, और माँ एक गायिका थीं| बचपन से ही देशभक्ति के गीत गुनगुनाने वाले वीर डेंगू जी अपने माता पिता से दूर पले बढे, गायन के शौक के कारण वे मुंबई चले गये किन्तु जब उन्होंने देश की दुर्दशा देखी तो उनसे रहा न गया और उन्होंने सब कुछ छोड़ कर देश के लिए कुछ करने का संकल्प उठाया|
   उनके करीबी बताते हैं  कि २६/११ के हमले के बाद शासन की उदासीनता ने उनका जीवन एक दम बदल कर रख दिया और वे इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गये|
   मैं आशा करता हूँ कि परमवीर श्री डेंगू जी से अन्य सभी सांप, बिच्छू, बन्दर, कातर, छिपकली एवं विषखापर जैसे फ़ालतू ठलुआ और उद्दंड समुदाय के लोग प्रेरणा लें और देशहित के लिए कसाब व अन्य बंद अपराधियों (जिन पर कि शासन और प्रशासन किन्कर्त्वयविमूढ़ की स्थिति में रहता है) पर अपने अपने स्तर से हमला करें और देश को मुक्ति दिलाने का प्रयास करें|
 जैसा कि आप जानते हैं कि भारतीय मनुष्य समुदाय को व्यवस्था ने इस स्तर का छोड़ा ही नही कि कुछ कर सकें, तो भारतीय जनमानस की उम्मीदें अब आप पर ही हैं| जय भारत!

डेंगू दादा अमर रहें

Wednesday, October 17, 2012

हे ईश् मेरे

देखा है कई बार
अनीति के बढ़ते क़दमों को
शिखर तक जाते हुए
देखा है कई बार
दुष्टों को....सूर्य पर मंडराते हुए

किन्तु कभी नहीं सोचा
कि होकर शामिल उनमें
मैं भी पाऊं सामीप्य गगन का/

ना ही सोचा कि मैं छोडूं
धरा नीति की
और विराजूं उड़ते रथ में/
है भीतर कुछ ऐसा बैठा
देता नहीं भटकने पथ में/
हे ईश् मेरे कहीं वो तुम तो नहीं

देखा है कई बार
सत्य को युद्धरत/
क्षत विक्षत...आहत/
सांस तक लेने के लिए
लड़ते हुए/
मीलों तक कदम रगड़ते हुए/

किन्तु कभी भी डिगा नहीं मन
घायल कितना हुआ भले तन
कभी नही मैं सोच सका ये
छोड़े साथ धर्म का जीवन
जीता है संकल्प अभी भी
प्राण अभी रहते हैं शपथ में
है भीतर कुछ ऐसा बैठा
देता नहीं भटकने पथ में/
हे ईश् मेरे कहीं वो तुम तो नहीं

यदि वो तुम ही हो...तो तुम सब में क्यों नही?
क्यों नही रोक लेते कदम अनीति के/ अधर्म के
तुम तो जगत के स्वामी हो न...


-पुष्यमित्र उपाध्याय 

Wednesday, October 10, 2012

सफ़ेद गुलाब


यूं ही तोड़ लिया था उस सुबह,
एक सफ़ेद गुलाब बागीचे से,
मैंने तुम्हारे लिए/
कि सौंप कर तुम्हें..
तुमसे सारे भाव मन के
कह दूंगा,
नीली नीली स्याही सा
कोरे कागज़ पर बह दूंगा/
हो जाऊँगा समर्पित ,
पुष्प की तरह/
फिर तुम ठुकरा देना
या अपना लेना/
मगर फिर तुम्हारे सामने...
शब्द रुंध गये/
स्याही जम गयी/
धडकनें बढ़ गयीं/
सांस थम गयी/
मैं असमर्थ था ..
तुम्हरी आँखों के सुर्ख सवालों,
का उत्तर देने में/
या कि उस लिखे हुए उत्तर के लिए,
सवाल गढ़ने में/
लौट आया,
और दफ्न कर दिया फिर उस सफ़ेद गुलाब को,
डायरी के दो पृष्ठों के बीच/
वहीँ उड़ेल दी स्याही, सारे भाव,
सारे शब्द/
तब से अब तक
वो दौर जारी है,
रोज़ एक सफ़ेद गुलाब दम तोड़ता है
मन के दो पृष्ठों की बीच/
और फैलती है...स्याही आज भी/
बहते हैं भाव आज भी/
मगर असमर्थ हैं,
इस अकेलेपन के पृष्ठों को रंगने में/
आज भी...अतृप्त है कुछ....

Monday, October 8, 2012

जिन्दगी

जिन्दगी
एक पहेली
उलझनों की सहेली
जिसने सुलझा ली...
उसने जी ली
जरा सी जिन्दगी....
जिन्दगी भर पी ली...

-पुष्यमित्र उपाध्याय

Sunday, October 7, 2012

तुमसे कहने को

तुमसे कहने को
थीं जो बातें मन की,
तुम्हें बताने को
थे जो भाव ह्रदय के,
उन सब के लिए
बहुत छोटे थे,
तीन या चार शब्द/
कैसे सुलझते?
नैनों में बरसों से उलझते धागे..
कैसे होता मुखर मैं?
तुम्हारी मौन मूरत के आगे...
नेह के अनंत ग्रन्थ,
अनगिन ऋचाएं प्रीत की,,
सौंपता तुम्हें कभी..
सोचा था ऐसा/
मगर हम दोनों के ही रास्तों ने
इतना भी अवसर कब दिया......?
-पुष्यमित्र उपाध्याय

Thursday, October 4, 2012

न जाने कब छुआ था, कागज़ का बदन स्याही से मैंने.....

न जाने कबसे,
जारी है ये वहशत/
ये खिलवाड़ लफ़्ज़ों से,
न जाने कब छुआ था,
कागज़ का बदन स्याही से मैंने?

उसके जाने के बाद तो नहीं!
उसके मिलने से पहले भी नहीं!
वहशत है तो,
आगाज़ खुशियों से हुआ होगा/
शायद तब...जब
उसने नज़रों से छुआ होगा/
लब्ज़ बस रास्ते ही होंगे,
मंजिल बस वो होगी,

अहसास बेताब होंगे/
हसरतें मचतली होंगी/
दिल बहकता होगा,
धडकनें संभलती होंगी/

बहुत वक़्त बीत गया है
याद भी नहीं मुझे,
न जाने कब कर ली थी दोस्ती,...
इस तन्हाई से मैंने/
न जाने कब छुआ था,
कागज़ का बदन स्याही से मैंने.....
-पुष्यमित्र उपाध्याय

Sunday, September 23, 2012

तुम भी होगे शायद परिचित

तुम भी होगे शायद परिचित
शब्द, मौन के इन झगड़ों से/
शब्द स्वयं को
मौन स्वयं को
किन्तु समर्पित
दोनों....तुमको

मौन कहे...तुम समझोगे
शब्द कहें...मैं समझा दूं
दोनों ही लेकिन ये चाहें...कैसे भी तुमको पा लूँ

मौन कहे तुम ना लौटोगे,
शब्द कहें आवाज़ तो दूं
दोनों ही पर चाह करें ये...हाथ तुम्हारा थाम तो लूँ

इसी शोक से, इसी शोर से
इन प्रश्नों के उठे जोर से
तुम भी व्यथित हुए तो होगे
मन भावों की इन रगड़ों से

तुम भी होगे शायद परिचित
शब्द, मौन के इन झगड़ों से.....

 -पुष्यमित्र उपाध्याय

Friday, September 21, 2012

जब तुम आतीं मेरे अंगना

ओढ़े चुनरी, पहने कंगना,
जब तुम आतीं मेरे अंगना,

बस उस पल भर जी लेता जीवन
आगे फिर चाहे मर लेता,
पाकर छुअन तुम्हारी प्रियतम
खुद को पावन कर लेता,

कितने स्वप्न सुहाने देखे
कैसा समय रुका सा देखा,
जब देखा घूंघट में तुमको,
गोरा वो चाँद छुपा सा देखा
काश कि बन पाता मैं बादल
बाहों में चंदा भर लेता
बस उस पल भर जी लेता जीवन
आगे फिर चाहे मर लेता,

मैं देहरी बनकर रहा प्रतीक्षित
तुम अब आओगे अब आओगे
भावों के सूखे बेले को तुम
साँसों से अपनी महकाओगे
जो होती अमर प्रतीक्षा भी ये
मैं भाव चातकी धर लेता
बस उस पल भर जी लेता जीवन
आगे फिर चाहे मर लेता,

-पुष्यमित्र उपाध्याय

Thursday, September 20, 2012

घर से कालेज तक का सफ़र




सुबह की नाज़ुक
हथेलियाँ,
हैं अभी छुअन में/
कच्ची कच्ची धूप,
चेहरे पर खिलती हुई/
कई कई ख्वाब,
खुलती.. बंद होतीं पलकों में,
पलते हुए/
वही जाना सा रास्ता/
मगर अनजाना सा सफ़र/
कई दोस्त कई बातें,
कई किस्से,
सब हिस्से... मेरी सुबह के/
सपनों का क्या है?
मिटते बनते/
मगर बातें ज़रुरीं थीं/
कालेज जरुरी न था,
मगर जरुरी था...वहां तक जाने का रास्ता/
मेरी सुबह का हिस्सा वो सफ़र,
मेरे जीने का हिस्सा वो सुबह...
हाँ अब खो गयी...
मेरे सपनों की भीड़ में
-पुष्यमित्र उपाध्याय

Wednesday, September 19, 2012

इतना ही बस प्यार था तुमसे ..........

स्वप्नों ने लांघी जब देहरी

हारे जब संयम के प्रहरी

जब नयनों के बाँध

टूटने लगे

जब मौन

छूटने लगे

तब इन सारे भावों को लेकर

नाम तुम्हारा लिख दिया

सूनी हथेली पर

और फिर ......

फिर बाँध लिया स्वयं को

उन्हीं सीमाओं में,

फिर ढो लिया वही मौन

वही अनंत संयम

क्यों कि शायद

इतना ही तुम पर अधिकार था

इतना ही बस तुमसे प्यार था ..........


-पुष्यमित्र उपाध्याय



Tuesday, September 18, 2012

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कोई कीमत न थी कोई शौहरत न थी
हमने पूजा तो फिर वो खुदा बन गया

नाम लेकर के जिसका बह दिए आईने
शख्स जाने क्यों वो बेवफा बन गया

-पुष्यमित्र उपाध्याय

Tuesday, September 11, 2012

एक छोटी सी कविता मेरी

एक छोटी सी कविता मेरी,
ना जाने कहाँ खो गयी है
सुबह, सीढियां चढ़ते वक्त तो थी
 मेरी ही जेब में
फिर ना जाने कहाँ गयी
सारे दिन की भाग दौड़ में
मुझे भी न रहा ध्यान
न जाने कब खो गयी वो
छोटी सी ही थी
उस कविता में,
एक पेड़ था
पेड़ पे एक झूला
झूले पर झूलते मेरे दोस्त
आवाज़ देकर बुलाते हुए
वो सब उसी कविता में ही तो थे
अब वो भी ना जाने कैसे मिलेंगे?
खो गये वो भी
उस कविता में था
एक बेघर हुआ
चिड़िया का छोटा सा बच्चा भी
शायद उसका घोंसला टूट गया था
शायद नहीं,
हाँ उसका घर छूट गया था
हमने सोचा था कि
एक दिन उसे 
घर पहुंचा देंगे...उसकी मम्मी से मिलवा देंगे
वो राह देखती होंगी
वो बच्चा भी,
उसी कविता के संग खो गया
अब ना जाने वो अपने घर कैसे पहुंचेगा?
वो कविता ना जाने कहाँ खो गयी
सुबह तक तो थी....मेरी ही जेब में..........

-पुष्यमित्र उपाध्याय

Saturday, September 8, 2012

प्रेम का लक्ष्य प्राप्ति नहीं

चंद्रमा हमें सुन्दर लगता है/ प्रिय है/ उसकी चांदनी में बैठना सुखद है/ उसके रूप को निहारना आनंददायक है/ उसे प्रेम करना स्वभाविक है/ किन्तु उसे अपने घर में सजाने की इच्छा मात्र एक निराधार हठ है, जो कि दुःख का मूल है/ उस पर कोई भी अपना एकल प्रभुत्व नहीं पा सकता/ ऐसी कामना भी मूर्खता है/
  कभी प्रेम को अभिलाषाओं और महत्वाकांक्षाओं के बिना भी स्वीकार कर देखो....पाओगे कि प्रेम कभी दुखदाई हो ही नहीं सकता/

-पुष्यमित्र उपाध्याय

Thursday, September 6, 2012

तुम और ये हवा


यूं छू कर गुज़र जाती है हवा/ जैसे तुम आकर लिपट गयी हो सीने से/ जैसे कि हर गम/ हर सितम/ अब ख़त्म होने को है/ जैसे कि ये तिश्नगी मिट जायेगी अब/ जैसे कि सब कुछ मेरे दिल से छीन लेगी ये हवा/ जैसे कि गम का दरिया/ बहा रहा है जो बरसो से...सोख ले जाओगी तुम....फिर शायद मेरा मुझ में कुछ न बचे......खुद को सौंप कर तुम्हें/ खुद को बाँट कर तुममें/ खुद को करके निसार तुम पे/ फिर क्या बचेगा मुझमें मेरा/ तुमसे मुझमें जो बच जाए वो मेरा हो/ फिर रहेगा ही क्या.....ये गम तो रहने दो.,..मत लिपटो यूं/ मत छुओ/ आदत नहीं है अब....बँट कर जीने की/ आदत नहीं है अब.....खुद को कम करने की.../ क्यों कि तुम और ये हवा बस एहसास हो....और एहसास सिर्फ धोखा होता है...
-पुष्यमित्र उपाध्याय

Wednesday, September 5, 2012

वो वक्त






 














 .
 .
.
चलते चलते कुछ दूर
उस वक्त से निकल आये हम
देखते हैं पलटकर
तो सब वहीं खड़े हैं
आगे फैला है..मीलों तक सन्नाटा
एक ख़ामोशी
एक लम्बी रात
न गुज़रती हुई
न ख़त्म होती हुई
लगता है धडकनों को

कि जैसे
सुबह होते ही
वो सब मिल जायेंगे
जैसे कि लौट कर
पा ही लेंगे हम
वो वक्त
वो खेलती अदाएं
वो बोलती तबस्सुम
वो इकरार करती निगाहें....
वो इनकार करती तुम.......
वो इनकार करती तुम......
-पुष्यमित्र उपाध्याय

Tuesday, September 4, 2012

अंत की प्रतीक्षा में अनंतता


    एक अधजला टुकड़ा लकड़ी का जिसमें कि शेष हो आग अभी, किन्तु बुझा दिया गया पूर्ण दहन से पहले ही/ क्या चाह सकता है? कितना चाह सकता है...इससे ज्यादा कि बस कोई हवा आकर कर जाए संचार अग्नि का/ हो पूर्णता का आभास/ हर परिस्थितियों में यही होगी मांग केवल/
वैसे ही.......
तुमको तब खोया जब बुने जा रहे थे जीवन के पथ नये./ नये नये! कई लक्ष्य ,कई दूरियों को पाने का निश्चय किया था/ मगर खोकर तुमको, शेष रहीं मात्र जीवन की औपचारिकताएं/ पथ हैं किन्तु लक्ष्य नहीं/ लक्ष्य हैं किन्तु लालसा नहीं/ यात्राएं हैं किन्तु गंतव्य नहीं/ जैसे किसी ने दीवारें हटा दीं हों/ जैसे अनंत हो चुका है संसार/ केवल तुम्हारे खो जाने से खो चुके हैं सारे विषय/ विषयों की रुचियाँ/ केवल तुम्हारी अनुपस्थिति से रिक्त है हर पूर्णता/ जैसे तुम इस शहर से नहीं मुझसे गये हो.....मैं अभी भी जल रहा हूँ....जल जाने की प्रतीक्षा में...जैसे अंत की प्रतीक्षा में बैठी हो अनंतता |
-पुष्यमित्र उपाध्याय

Monday, September 3, 2012

एक किस्सा

एक बार विश्व में एक मंचीय गायक हुआ, बड़ा सुप्रसिद्ध गायक! दुनिया भर के कपडे फाड़ने वाले गायक उससे ईर्ष्या करने लगे, असीमित गायन प्रतिभा, अनगिन गायन कलाओं का धनी वह/ ईर्ष्या करने योग्य ही था / अपनी ही खूबियाँ अपनी ही अदाएं/
  मगर एक बार प्रस्तुति देते हुए वह संगीत में ऐसा खोया की स्वयं पर नियंत्रण खोता ही चला गया/ संगीत चीज़ ही ऐसी है, बेसुध कर देने वाली/ मगर वो कुछ अधिक उत्साही हो चुका था/ उन्माद सवार था उस पर/ ये केवल संगीत का प्रभाव नहीं था, ये उसका स्वयं में स्वयं से कुछ अधिक जोड़ने का प्रयत्न था/ कि उसने अपने कपडे उतारना शुरू कर दिए/ अति उन्मादी हो चुका था वह/ हालांकि वह प्रयोगवादी बिलकुल नहीं था, उसके पास अपना सब कुछ था/ बिलकुल मौलिक! किन्तु आज उसका यह रूप लोगों की समझ से परे था/ प्रशंसक पागल हुए जा रहे थे/ जोरों से तालियाँ बज रहीं थी/ शोर बढ़ रहा था..बढ़ता जा रहा था....और बढ़ता जा रहा था उस गायक का उन्माद भी/ वह कपडे फेंकने लगा/ बड़ा गायक था लोग कपड़ों के लिए आपस में लड़ने लगे( बताते हैं कि उसके कपडे बड़े महंगे नीलम हुए)...मगर जब कार्यक्रम ख़त्म हुआ/ तब उसने पाया कि उसके पास तन ढकने को कुछ भी शेष नहीं बचा/ इतने वर्षों की प्रभुता एक झटके में समाप्त हो चुकी थी| जो तालियाँ बजा रहे थे वे उस पर हंस रहे थे/ जो उससे ईर्ष्या करते थे वे बहुत प्रसन्न थे, क्यों कि अब वह भी उन्ही की श्रेणी में आ चुका था|////////////////////////////////////////////////
/////हाँ एक बात बताना भूल गया .......वो गायक कोई और नहीं "भारत का युवावर्ग" था........और वो कपडे उसकी 'संस्कृति' .......................................................©
-पुष्यमित्र उपाध्याय




Saturday, July 21, 2012

यूं तो मैं राजनीति पे ज्यादा टिपण्णी नहीं करता किन्तु, वर्तमान व्यवस्था ने अव्यवस्था के सभी कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए हैं, अन्याय और अक्रियता ने देश में जैसे पैर पसारे हैं, उससे कहीं भी ये नहीं लगता कि हम महान बनने के मार्ग पर कहीं भी हैं| न सिर्फ वर्तमान शासन अपितु न्यायिक संस्थानों ने भी अपनी जो छवि नागरिकों से समक्ष प्रस्तुत की है, वह हर अर्थों में निंदनीय है| जनता इतनी निराश और क्षुब्ध है कि ये दबा हुआ क्रोध कहीं एक तूफ़ान का रूप न ले ले|
हाल ही में लिए गये कुछ फैसले जैसे इतने बड़े घोटाले के आरोपी कलमाड़ी को लन्दन जाने की अनुमति देना, वहीँ आचार्य बालकृष्ण की बलपूर्वक की गयी गिरफ्तारी, कानूनन रूप से सही हो सकते हैं किन्तु जनता की अदालत इन्हें कभी स्वीकार नहीं कर सकती| अन्ना जैसे व्यक्तियों को आन्दोलन करने तक की जगह नहीं मिली और दूसरी तरफ ऐ.राजा जैसे भ्रष्ट लोग संसद में दोबारा पहुँच गये, रामदेव को लाठियां मिलती हैं और निर्मल बाबा को संरक्षा! ये सभी अतार्किक और अन्यायिक गतिविधियाँ ही लोगो में रोष उत्पन्न करती हैं|
एक ओर अनीतिपूर्ण मूल्यवृद्धि दूसरी ओर खंडित अर्थव्यवस्था और इन सबसे ऊपर कि इन सब के हल हेतु कोई इच्छाशक्ति का ना होना| वाकई भारत अपने सबसे खराब दौर में हैं शासन पूरी तरह निष्क्रिय है, लोकतंत्र का नाम लिए तानाशाही पसर रही हैं, युवा विदेशियों के अनुसरण पर हैं, विज्ञान ध्वस्त है, आध्यात्म ध्वस्त है, शिक्षा व्यवसाय हो चली है, ऐसे में किसी बड़े आन्दोलन की जरुरत देश को है जिसका उद्देश्य भारतीयता को विकसित करना हो|
क्यों कि किसी भी राष्ट्र का उद्धार तभी हो सकता है जब कि तरीके राष्ट्रीय हों ना कि आयातित|.......जय भारत!!

Saturday, May 5, 2012

सुप्रभात


साथ जिनको मेरा था, निभाना नहीं,
उन उजालों से कह दो पास आना नहीं,
ख्वाब नींदों में कुछ जल रहे हैं अभी,
ऐ सुबह! तू हमें, अब जगाना नहीं...