Sunday, September 23, 2012

तुम भी होगे शायद परिचित

तुम भी होगे शायद परिचित
शब्द, मौन के इन झगड़ों से/
शब्द स्वयं को
मौन स्वयं को
किन्तु समर्पित
दोनों....तुमको

मौन कहे...तुम समझोगे
शब्द कहें...मैं समझा दूं
दोनों ही लेकिन ये चाहें...कैसे भी तुमको पा लूँ

मौन कहे तुम ना लौटोगे,
शब्द कहें आवाज़ तो दूं
दोनों ही पर चाह करें ये...हाथ तुम्हारा थाम तो लूँ

इसी शोक से, इसी शोर से
इन प्रश्नों के उठे जोर से
तुम भी व्यथित हुए तो होगे
मन भावों की इन रगड़ों से

तुम भी होगे शायद परिचित
शब्द, मौन के इन झगड़ों से.....

 -पुष्यमित्र उपाध्याय

Friday, September 21, 2012

जब तुम आतीं मेरे अंगना

ओढ़े चुनरी, पहने कंगना,
जब तुम आतीं मेरे अंगना,

बस उस पल भर जी लेता जीवन
आगे फिर चाहे मर लेता,
पाकर छुअन तुम्हारी प्रियतम
खुद को पावन कर लेता,

कितने स्वप्न सुहाने देखे
कैसा समय रुका सा देखा,
जब देखा घूंघट में तुमको,
गोरा वो चाँद छुपा सा देखा
काश कि बन पाता मैं बादल
बाहों में चंदा भर लेता
बस उस पल भर जी लेता जीवन
आगे फिर चाहे मर लेता,

मैं देहरी बनकर रहा प्रतीक्षित
तुम अब आओगे अब आओगे
भावों के सूखे बेले को तुम
साँसों से अपनी महकाओगे
जो होती अमर प्रतीक्षा भी ये
मैं भाव चातकी धर लेता
बस उस पल भर जी लेता जीवन
आगे फिर चाहे मर लेता,

-पुष्यमित्र उपाध्याय

Thursday, September 20, 2012

घर से कालेज तक का सफ़र




सुबह की नाज़ुक
हथेलियाँ,
हैं अभी छुअन में/
कच्ची कच्ची धूप,
चेहरे पर खिलती हुई/
कई कई ख्वाब,
खुलती.. बंद होतीं पलकों में,
पलते हुए/
वही जाना सा रास्ता/
मगर अनजाना सा सफ़र/
कई दोस्त कई बातें,
कई किस्से,
सब हिस्से... मेरी सुबह के/
सपनों का क्या है?
मिटते बनते/
मगर बातें ज़रुरीं थीं/
कालेज जरुरी न था,
मगर जरुरी था...वहां तक जाने का रास्ता/
मेरी सुबह का हिस्सा वो सफ़र,
मेरे जीने का हिस्सा वो सुबह...
हाँ अब खो गयी...
मेरे सपनों की भीड़ में
-पुष्यमित्र उपाध्याय

Wednesday, September 19, 2012

इतना ही बस प्यार था तुमसे ..........

स्वप्नों ने लांघी जब देहरी

हारे जब संयम के प्रहरी

जब नयनों के बाँध

टूटने लगे

जब मौन

छूटने लगे

तब इन सारे भावों को लेकर

नाम तुम्हारा लिख दिया

सूनी हथेली पर

और फिर ......

फिर बाँध लिया स्वयं को

उन्हीं सीमाओं में,

फिर ढो लिया वही मौन

वही अनंत संयम

क्यों कि शायद

इतना ही तुम पर अधिकार था

इतना ही बस तुमसे प्यार था ..........


-पुष्यमित्र उपाध्याय



Tuesday, September 18, 2012

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कोई कीमत न थी कोई शौहरत न थी
हमने पूजा तो फिर वो खुदा बन गया

नाम लेकर के जिसका बह दिए आईने
शख्स जाने क्यों वो बेवफा बन गया

-पुष्यमित्र उपाध्याय

Tuesday, September 11, 2012

एक छोटी सी कविता मेरी

एक छोटी सी कविता मेरी,
ना जाने कहाँ खो गयी है
सुबह, सीढियां चढ़ते वक्त तो थी
 मेरी ही जेब में
फिर ना जाने कहाँ गयी
सारे दिन की भाग दौड़ में
मुझे भी न रहा ध्यान
न जाने कब खो गयी वो
छोटी सी ही थी
उस कविता में,
एक पेड़ था
पेड़ पे एक झूला
झूले पर झूलते मेरे दोस्त
आवाज़ देकर बुलाते हुए
वो सब उसी कविता में ही तो थे
अब वो भी ना जाने कैसे मिलेंगे?
खो गये वो भी
उस कविता में था
एक बेघर हुआ
चिड़िया का छोटा सा बच्चा भी
शायद उसका घोंसला टूट गया था
शायद नहीं,
हाँ उसका घर छूट गया था
हमने सोचा था कि
एक दिन उसे 
घर पहुंचा देंगे...उसकी मम्मी से मिलवा देंगे
वो राह देखती होंगी
वो बच्चा भी,
उसी कविता के संग खो गया
अब ना जाने वो अपने घर कैसे पहुंचेगा?
वो कविता ना जाने कहाँ खो गयी
सुबह तक तो थी....मेरी ही जेब में..........

-पुष्यमित्र उपाध्याय

Saturday, September 8, 2012

प्रेम का लक्ष्य प्राप्ति नहीं

चंद्रमा हमें सुन्दर लगता है/ प्रिय है/ उसकी चांदनी में बैठना सुखद है/ उसके रूप को निहारना आनंददायक है/ उसे प्रेम करना स्वभाविक है/ किन्तु उसे अपने घर में सजाने की इच्छा मात्र एक निराधार हठ है, जो कि दुःख का मूल है/ उस पर कोई भी अपना एकल प्रभुत्व नहीं पा सकता/ ऐसी कामना भी मूर्खता है/
  कभी प्रेम को अभिलाषाओं और महत्वाकांक्षाओं के बिना भी स्वीकार कर देखो....पाओगे कि प्रेम कभी दुखदाई हो ही नहीं सकता/

-पुष्यमित्र उपाध्याय

Thursday, September 6, 2012

तुम और ये हवा


यूं छू कर गुज़र जाती है हवा/ जैसे तुम आकर लिपट गयी हो सीने से/ जैसे कि हर गम/ हर सितम/ अब ख़त्म होने को है/ जैसे कि ये तिश्नगी मिट जायेगी अब/ जैसे कि सब कुछ मेरे दिल से छीन लेगी ये हवा/ जैसे कि गम का दरिया/ बहा रहा है जो बरसो से...सोख ले जाओगी तुम....फिर शायद मेरा मुझ में कुछ न बचे......खुद को सौंप कर तुम्हें/ खुद को बाँट कर तुममें/ खुद को करके निसार तुम पे/ फिर क्या बचेगा मुझमें मेरा/ तुमसे मुझमें जो बच जाए वो मेरा हो/ फिर रहेगा ही क्या.....ये गम तो रहने दो.,..मत लिपटो यूं/ मत छुओ/ आदत नहीं है अब....बँट कर जीने की/ आदत नहीं है अब.....खुद को कम करने की.../ क्यों कि तुम और ये हवा बस एहसास हो....और एहसास सिर्फ धोखा होता है...
-पुष्यमित्र उपाध्याय

Wednesday, September 5, 2012

वो वक्त






 














 .
 .
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चलते चलते कुछ दूर
उस वक्त से निकल आये हम
देखते हैं पलटकर
तो सब वहीं खड़े हैं
आगे फैला है..मीलों तक सन्नाटा
एक ख़ामोशी
एक लम्बी रात
न गुज़रती हुई
न ख़त्म होती हुई
लगता है धडकनों को

कि जैसे
सुबह होते ही
वो सब मिल जायेंगे
जैसे कि लौट कर
पा ही लेंगे हम
वो वक्त
वो खेलती अदाएं
वो बोलती तबस्सुम
वो इकरार करती निगाहें....
वो इनकार करती तुम.......
वो इनकार करती तुम......
-पुष्यमित्र उपाध्याय

Tuesday, September 4, 2012

अंत की प्रतीक्षा में अनंतता


    एक अधजला टुकड़ा लकड़ी का जिसमें कि शेष हो आग अभी, किन्तु बुझा दिया गया पूर्ण दहन से पहले ही/ क्या चाह सकता है? कितना चाह सकता है...इससे ज्यादा कि बस कोई हवा आकर कर जाए संचार अग्नि का/ हो पूर्णता का आभास/ हर परिस्थितियों में यही होगी मांग केवल/
वैसे ही.......
तुमको तब खोया जब बुने जा रहे थे जीवन के पथ नये./ नये नये! कई लक्ष्य ,कई दूरियों को पाने का निश्चय किया था/ मगर खोकर तुमको, शेष रहीं मात्र जीवन की औपचारिकताएं/ पथ हैं किन्तु लक्ष्य नहीं/ लक्ष्य हैं किन्तु लालसा नहीं/ यात्राएं हैं किन्तु गंतव्य नहीं/ जैसे किसी ने दीवारें हटा दीं हों/ जैसे अनंत हो चुका है संसार/ केवल तुम्हारे खो जाने से खो चुके हैं सारे विषय/ विषयों की रुचियाँ/ केवल तुम्हारी अनुपस्थिति से रिक्त है हर पूर्णता/ जैसे तुम इस शहर से नहीं मुझसे गये हो.....मैं अभी भी जल रहा हूँ....जल जाने की प्रतीक्षा में...जैसे अंत की प्रतीक्षा में बैठी हो अनंतता |
-पुष्यमित्र उपाध्याय

Monday, September 3, 2012

एक किस्सा

एक बार विश्व में एक मंचीय गायक हुआ, बड़ा सुप्रसिद्ध गायक! दुनिया भर के कपडे फाड़ने वाले गायक उससे ईर्ष्या करने लगे, असीमित गायन प्रतिभा, अनगिन गायन कलाओं का धनी वह/ ईर्ष्या करने योग्य ही था / अपनी ही खूबियाँ अपनी ही अदाएं/
  मगर एक बार प्रस्तुति देते हुए वह संगीत में ऐसा खोया की स्वयं पर नियंत्रण खोता ही चला गया/ संगीत चीज़ ही ऐसी है, बेसुध कर देने वाली/ मगर वो कुछ अधिक उत्साही हो चुका था/ उन्माद सवार था उस पर/ ये केवल संगीत का प्रभाव नहीं था, ये उसका स्वयं में स्वयं से कुछ अधिक जोड़ने का प्रयत्न था/ कि उसने अपने कपडे उतारना शुरू कर दिए/ अति उन्मादी हो चुका था वह/ हालांकि वह प्रयोगवादी बिलकुल नहीं था, उसके पास अपना सब कुछ था/ बिलकुल मौलिक! किन्तु आज उसका यह रूप लोगों की समझ से परे था/ प्रशंसक पागल हुए जा रहे थे/ जोरों से तालियाँ बज रहीं थी/ शोर बढ़ रहा था..बढ़ता जा रहा था....और बढ़ता जा रहा था उस गायक का उन्माद भी/ वह कपडे फेंकने लगा/ बड़ा गायक था लोग कपड़ों के लिए आपस में लड़ने लगे( बताते हैं कि उसके कपडे बड़े महंगे नीलम हुए)...मगर जब कार्यक्रम ख़त्म हुआ/ तब उसने पाया कि उसके पास तन ढकने को कुछ भी शेष नहीं बचा/ इतने वर्षों की प्रभुता एक झटके में समाप्त हो चुकी थी| जो तालियाँ बजा रहे थे वे उस पर हंस रहे थे/ जो उससे ईर्ष्या करते थे वे बहुत प्रसन्न थे, क्यों कि अब वह भी उन्ही की श्रेणी में आ चुका था|////////////////////////////////////////////////
/////हाँ एक बात बताना भूल गया .......वो गायक कोई और नहीं "भारत का युवावर्ग" था........और वो कपडे उसकी 'संस्कृति' .......................................................©
-पुष्यमित्र उपाध्याय