Tuesday, September 11, 2012

एक छोटी सी कविता मेरी

एक छोटी सी कविता मेरी,
ना जाने कहाँ खो गयी है
सुबह, सीढियां चढ़ते वक्त तो थी
 मेरी ही जेब में
फिर ना जाने कहाँ गयी
सारे दिन की भाग दौड़ में
मुझे भी न रहा ध्यान
न जाने कब खो गयी वो
छोटी सी ही थी
उस कविता में,
एक पेड़ था
पेड़ पे एक झूला
झूले पर झूलते मेरे दोस्त
आवाज़ देकर बुलाते हुए
वो सब उसी कविता में ही तो थे
अब वो भी ना जाने कैसे मिलेंगे?
खो गये वो भी
उस कविता में था
एक बेघर हुआ
चिड़िया का छोटा सा बच्चा भी
शायद उसका घोंसला टूट गया था
शायद नहीं,
हाँ उसका घर छूट गया था
हमने सोचा था कि
एक दिन उसे 
घर पहुंचा देंगे...उसकी मम्मी से मिलवा देंगे
वो राह देखती होंगी
वो बच्चा भी,
उसी कविता के संग खो गया
अब ना जाने वो अपने घर कैसे पहुंचेगा?
वो कविता ना जाने कहाँ खो गयी
सुबह तक तो थी....मेरी ही जेब में..........

-पुष्यमित्र उपाध्याय

1 comment:

  1. बहुत ही सुन्दर कविता हैं, मैं इस कविता को कई बार पढ़ चुका हूं लेकिन हर बार एक अलग ही आनंद आता है।

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