Thursday, September 20, 2012

घर से कालेज तक का सफ़र




सुबह की नाज़ुक
हथेलियाँ,
हैं अभी छुअन में/
कच्ची कच्ची धूप,
चेहरे पर खिलती हुई/
कई कई ख्वाब,
खुलती.. बंद होतीं पलकों में,
पलते हुए/
वही जाना सा रास्ता/
मगर अनजाना सा सफ़र/
कई दोस्त कई बातें,
कई किस्से,
सब हिस्से... मेरी सुबह के/
सपनों का क्या है?
मिटते बनते/
मगर बातें ज़रुरीं थीं/
कालेज जरुरी न था,
मगर जरुरी था...वहां तक जाने का रास्ता/
मेरी सुबह का हिस्सा वो सफ़र,
मेरे जीने का हिस्सा वो सुबह...
हाँ अब खो गयी...
मेरे सपनों की भीड़ में
-पुष्यमित्र उपाध्याय

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