Tuesday, September 4, 2012

अंत की प्रतीक्षा में अनंतता


    एक अधजला टुकड़ा लकड़ी का जिसमें कि शेष हो आग अभी, किन्तु बुझा दिया गया पूर्ण दहन से पहले ही/ क्या चाह सकता है? कितना चाह सकता है...इससे ज्यादा कि बस कोई हवा आकर कर जाए संचार अग्नि का/ हो पूर्णता का आभास/ हर परिस्थितियों में यही होगी मांग केवल/
वैसे ही.......
तुमको तब खोया जब बुने जा रहे थे जीवन के पथ नये./ नये नये! कई लक्ष्य ,कई दूरियों को पाने का निश्चय किया था/ मगर खोकर तुमको, शेष रहीं मात्र जीवन की औपचारिकताएं/ पथ हैं किन्तु लक्ष्य नहीं/ लक्ष्य हैं किन्तु लालसा नहीं/ यात्राएं हैं किन्तु गंतव्य नहीं/ जैसे किसी ने दीवारें हटा दीं हों/ जैसे अनंत हो चुका है संसार/ केवल तुम्हारे खो जाने से खो चुके हैं सारे विषय/ विषयों की रुचियाँ/ केवल तुम्हारी अनुपस्थिति से रिक्त है हर पूर्णता/ जैसे तुम इस शहर से नहीं मुझसे गये हो.....मैं अभी भी जल रहा हूँ....जल जाने की प्रतीक्षा में...जैसे अंत की प्रतीक्षा में बैठी हो अनंतता |
-पुष्यमित्र उपाध्याय

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