Wednesday, September 5, 2012

वो वक्त






 














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चलते चलते कुछ दूर
उस वक्त से निकल आये हम
देखते हैं पलटकर
तो सब वहीं खड़े हैं
आगे फैला है..मीलों तक सन्नाटा
एक ख़ामोशी
एक लम्बी रात
न गुज़रती हुई
न ख़त्म होती हुई
लगता है धडकनों को

कि जैसे
सुबह होते ही
वो सब मिल जायेंगे
जैसे कि लौट कर
पा ही लेंगे हम
वो वक्त
वो खेलती अदाएं
वो बोलती तबस्सुम
वो इकरार करती निगाहें....
वो इनकार करती तुम.......
वो इनकार करती तुम......
-पुष्यमित्र उपाध्याय

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