Wednesday, October 17, 2012

हे ईश् मेरे

देखा है कई बार
अनीति के बढ़ते क़दमों को
शिखर तक जाते हुए
देखा है कई बार
दुष्टों को....सूर्य पर मंडराते हुए

किन्तु कभी नहीं सोचा
कि होकर शामिल उनमें
मैं भी पाऊं सामीप्य गगन का/

ना ही सोचा कि मैं छोडूं
धरा नीति की
और विराजूं उड़ते रथ में/
है भीतर कुछ ऐसा बैठा
देता नहीं भटकने पथ में/
हे ईश् मेरे कहीं वो तुम तो नहीं

देखा है कई बार
सत्य को युद्धरत/
क्षत विक्षत...आहत/
सांस तक लेने के लिए
लड़ते हुए/
मीलों तक कदम रगड़ते हुए/

किन्तु कभी भी डिगा नहीं मन
घायल कितना हुआ भले तन
कभी नही मैं सोच सका ये
छोड़े साथ धर्म का जीवन
जीता है संकल्प अभी भी
प्राण अभी रहते हैं शपथ में
है भीतर कुछ ऐसा बैठा
देता नहीं भटकने पथ में/
हे ईश् मेरे कहीं वो तुम तो नहीं

यदि वो तुम ही हो...तो तुम सब में क्यों नही?
क्यों नही रोक लेते कदम अनीति के/ अधर्म के
तुम तो जगत के स्वामी हो न...


-पुष्यमित्र उपाध्याय 

Wednesday, October 10, 2012

सफ़ेद गुलाब


यूं ही तोड़ लिया था उस सुबह,
एक सफ़ेद गुलाब बागीचे से,
मैंने तुम्हारे लिए/
कि सौंप कर तुम्हें..
तुमसे सारे भाव मन के
कह दूंगा,
नीली नीली स्याही सा
कोरे कागज़ पर बह दूंगा/
हो जाऊँगा समर्पित ,
पुष्प की तरह/
फिर तुम ठुकरा देना
या अपना लेना/
मगर फिर तुम्हारे सामने...
शब्द रुंध गये/
स्याही जम गयी/
धडकनें बढ़ गयीं/
सांस थम गयी/
मैं असमर्थ था ..
तुम्हरी आँखों के सुर्ख सवालों,
का उत्तर देने में/
या कि उस लिखे हुए उत्तर के लिए,
सवाल गढ़ने में/
लौट आया,
और दफ्न कर दिया फिर उस सफ़ेद गुलाब को,
डायरी के दो पृष्ठों के बीच/
वहीँ उड़ेल दी स्याही, सारे भाव,
सारे शब्द/
तब से अब तक
वो दौर जारी है,
रोज़ एक सफ़ेद गुलाब दम तोड़ता है
मन के दो पृष्ठों की बीच/
और फैलती है...स्याही आज भी/
बहते हैं भाव आज भी/
मगर असमर्थ हैं,
इस अकेलेपन के पृष्ठों को रंगने में/
आज भी...अतृप्त है कुछ....

Monday, October 8, 2012

जिन्दगी

जिन्दगी
एक पहेली
उलझनों की सहेली
जिसने सुलझा ली...
उसने जी ली
जरा सी जिन्दगी....
जिन्दगी भर पी ली...

-पुष्यमित्र उपाध्याय

Sunday, October 7, 2012

तुमसे कहने को

तुमसे कहने को
थीं जो बातें मन की,
तुम्हें बताने को
थे जो भाव ह्रदय के,
उन सब के लिए
बहुत छोटे थे,
तीन या चार शब्द/
कैसे सुलझते?
नैनों में बरसों से उलझते धागे..
कैसे होता मुखर मैं?
तुम्हारी मौन मूरत के आगे...
नेह के अनंत ग्रन्थ,
अनगिन ऋचाएं प्रीत की,,
सौंपता तुम्हें कभी..
सोचा था ऐसा/
मगर हम दोनों के ही रास्तों ने
इतना भी अवसर कब दिया......?
-पुष्यमित्र उपाध्याय

Thursday, October 4, 2012

न जाने कब छुआ था, कागज़ का बदन स्याही से मैंने.....

न जाने कबसे,
जारी है ये वहशत/
ये खिलवाड़ लफ़्ज़ों से,
न जाने कब छुआ था,
कागज़ का बदन स्याही से मैंने?

उसके जाने के बाद तो नहीं!
उसके मिलने से पहले भी नहीं!
वहशत है तो,
आगाज़ खुशियों से हुआ होगा/
शायद तब...जब
उसने नज़रों से छुआ होगा/
लब्ज़ बस रास्ते ही होंगे,
मंजिल बस वो होगी,

अहसास बेताब होंगे/
हसरतें मचतली होंगी/
दिल बहकता होगा,
धडकनें संभलती होंगी/

बहुत वक़्त बीत गया है
याद भी नहीं मुझे,
न जाने कब कर ली थी दोस्ती,...
इस तन्हाई से मैंने/
न जाने कब छुआ था,
कागज़ का बदन स्याही से मैंने.....
-पुष्यमित्र उपाध्याय