Wednesday, October 10, 2012

सफ़ेद गुलाब


यूं ही तोड़ लिया था उस सुबह,
एक सफ़ेद गुलाब बागीचे से,
मैंने तुम्हारे लिए/
कि सौंप कर तुम्हें..
तुमसे सारे भाव मन के
कह दूंगा,
नीली नीली स्याही सा
कोरे कागज़ पर बह दूंगा/
हो जाऊँगा समर्पित ,
पुष्प की तरह/
फिर तुम ठुकरा देना
या अपना लेना/
मगर फिर तुम्हारे सामने...
शब्द रुंध गये/
स्याही जम गयी/
धडकनें बढ़ गयीं/
सांस थम गयी/
मैं असमर्थ था ..
तुम्हरी आँखों के सुर्ख सवालों,
का उत्तर देने में/
या कि उस लिखे हुए उत्तर के लिए,
सवाल गढ़ने में/
लौट आया,
और दफ्न कर दिया फिर उस सफ़ेद गुलाब को,
डायरी के दो पृष्ठों के बीच/
वहीँ उड़ेल दी स्याही, सारे भाव,
सारे शब्द/
तब से अब तक
वो दौर जारी है,
रोज़ एक सफ़ेद गुलाब दम तोड़ता है
मन के दो पृष्ठों की बीच/
और फैलती है...स्याही आज भी/
बहते हैं भाव आज भी/
मगर असमर्थ हैं,
इस अकेलेपन के पृष्ठों को रंगने में/
आज भी...अतृप्त है कुछ....

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