Wednesday, December 26, 2012

कैसी ग़ज़ल?


कैसी नज़्म
कैसी ग़ज़ल
कैसे सजाऊँ मतले
कैसे बिछाऊं हर्फ़
कोई चौराहे पर लुट जाए
कोई तेजाब से झुलसे
कोई ज़िंदा जले
कोई जिंदगी को तरसे

और मैं!

ग़ज़ल बाधूं?
काफिये मिलाऊं?
लफ्ज़ तो साथ ना देंगे!
ईमान तो बगावत करेगा!

जले हुए गुलशन में
खुशबू की बात करूँ
चीखों में
राग छेड़ूँ ?

आसान होगा तुम्हारे लिए
हैवानों से भरी रात में
लोरी सुनकर सो जाना,
मगर मेरे लिए ये जरुरी है
कि मैं जगने की बात करूँ
मैं लड़ने की बात करूँ
आज अगर सो गये
तो
फिर कोई लूटेगा
फिर कोई लुटेगा

मगर किसी रात...... तुम्हारी भी नींद उड़ जायेगी
तुम्हे भी अच्छे लगेंगे...ये मुखड़े...ये अंतरे
और तब शायद तुम
सोने की बात करोगे
....इसलिए जागो और लड़ो...
एक रात सोकर ........
शायद उम्र भर की नींद मिल जाए................
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पुष्यमित्र उपाध्याय

Monday, December 17, 2012

"पदोन्नति में आरक्षण

"पदोन्नति में आरक्षण" ये जिन फिर बोतल से बाहर आ गया है, शायद ये ही एक साधन था FDI  के विरुद्ध एक जुट हुए महावर्ग को विखंडित करने का| शासन पूरी तरह इसमें सफल हुआ, आज दलित एक तरफ है सवर्ण एक तरफ और देश भर में भारी विरोध और अंतर्कलह की स्थिति बन चुकी है| व्यवस्था, बहुमत, अधिकार, संविधान, शक्ति और प्रबंधन का दुरुपोग शासन द्वारा जिस तरह किया जा रहा है वह नैतिकता और नीयत के काफी नीच स्तर को दर्शाता है| लोकतंत्र और संविधान ने साधारण नागरिक को क़ानून निर्माण में कोई भी प्रत्यक्ष हस्तक्षेप का अधिकार ना देकर पंगु ही बना दिया है जिसका राजनैतिक लाभ सभी दल आज उठा रहे हैं| किन्तु फिर भी यह एकपक्षीय निर्णय प्रश्न तो खड़े करता ही है कि एक तरफ FDI को लेकर आर्थिक उन्नति का बहाना दिया जाता है, दूसरी तरफ योग्यता को लात मार कर उन्नति जैसे शब्दों को अर्थ हीन कर दिया जाता है| निर्माण, उद्योग, शिक्षा, प्रबंधन, सुरक्षा आदि ऐसे क्षेत्र हैं जो कि प्रत्यक्ष रूप से देश की अर्थव्यवस्था और विश्वपटल पर देश की उन्नति का निर्धारण करते हैं| ऐसे में यह जरुरी है कि इन क्षेत्रों में चुने जाने वाले कर्मी/अधिकारी सम्बंधित क्षेत्रों के लिए आवश्यक योग्यता रखते हों, और पदोन्नति भी कार्यअनुभव और उपलब्धियों के आधार पर की जाए|
    राजकीय पाठ्यक्रमों में " औद्योगिक मनोविज्ञान" यही कहता है कि हर उद्योग मूलतः "निम्नतम निवेश और अधिकतम लाभ" के उद्देश्य को लेकर संचालित किया जाता है और इसके लिए वे "सही काम पर सही व्यक्ति " के सूत्र का अनुसरण करते हैं| फिर भी राष्ट्रीय लाभ को ताक पर रख राजनैतिक लाभ का जो पथ सभी दल अपना रहे हैं , वे उन्हें किसी भी रूप में देश के नेतृत्व का नैतिक अधिकार नहीं देते| अयोग्य को सहारा देकर महत्वपूर्ण पद पर बैठा देना न सिर्फ व्यवस्था का मज़ाक है बल्कि एक असंतुलित परिवेश को जन्म देना भी है| शासन की नीति सिर्फ समाज को विखंडित करने की है, जैसे जैसे आरक्षण का दायरा बढ़ता जा रहा है, सामजिक ढाँचे टूटते जा रहे हैं, अच्छे मित्र भी कटुता के भाव रखने लगे हैं| उपेक्षा ख़त्म हो रही है शत्रुता बढ़ रही है| असंतोष फ़ैल रहा है|
    समाज का बंटना भले ही राजनैतिक दलों के लिए लाभ का विषय हो, किन्तु यह भी सत्य है धीरे धीरे सभ्य और शिक्षित नागरिकों के मन में लोकतंत्र, संविधान, नीति और व्यवस्था के प्रति निरादर भावों का संचार हो रहा है| लोकतंत्र के क्रूर और अन्यायी निर्णयों ने जनमानस को इस तरह से प्रताड़ित किया है कि उन्हें देश के प्रति प्रेम और संविधान के प्रति आदर का कोई कारण नज़र नहीं आता| और ये सच भी है भारत का सिर्फ इतिहास गौरवशाली है, वर्तमान तो नरकीय है| कहने को अधिकारों की एक पूरी सूची है किन्तु फिर भी व्यक्ति पंगु है वह किसी भी स्थिति का विरोध नही कर सकता, विरोध भी शासन तय करता है कि कितना होगा, कब तक होगा, कहाँ होगा और क्यों होगा| उनके पास शक्तियां हैं, जब भी विरोध उन्हें असहज या अधिक हानिकारक लगता है वे उसे कुचल देते हैं| ये सभी बातें नागरिक समझने लगे हैं किन्तु सबसे अधिक दुर्भाग्य की बात ये है जिस राजनैतिक लाभ के लिए सभी दल ऐसा कर रहे हैं लोग उस लोकतंत्र को मानना ही बंद कर दें तो? क्या वे स्वतः ही तानाशाही को निमंत्रण नहीं दे रहे हैं? उत्तरप्रदेश शासन ने आरक्षण का विरोध कर के जो जनसमर्थन हासिल किया है वह मात्र भी मात्र एक ढोंग ही है यदि यही आरक्षण, मुस्लिमों और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए होता तो वे भी उसी आरक्षण समर्थकों की कतार में होते जिसमे कि सभी दल खड़े हैं| नाम अलग हैं किन्तु सभी मिलकर लोकतंत्र के सर्वनाश की नींव रख रहे हैं|
      बात किसी के उत्थान को रोकने की बिलकुल नहीं है बात है योग्य को दुत्कार कर अयोग्य के हाथ में महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व देने की है| ये गलत चयन का ही परिणाम है कि सूचना क्रांति होने के इतने वर्षों के बाद भी भारत तकनीकी के क्षेत्र में बहुत पिछड़ा है| आज भी आप देखिये अधिकतर महत्वपूर्ण राजकीय वेबसाइट्स ठीक प्रकार से कार्य नहीं करतीं| ये उस दौर का हाल है जब हर कार्य को इन्टरनेट से जोड़ने का कार्य किया जा रहा है| ऐसे में और गलत चयन देश को किस दिशा में ले जाएगा ये तो शायद ईश्वर ही जान पाए| मुझे अधिकार और सामर्थ्य बस इसका लिखित विरोध करने तक ही दिए गये हैं जो मैं पूरी तरह से करता हूँ...शेष राम भला करे.....और कुछ ज्यादा कह गया हूँ तो श्री राम से क्षमा का प्रार्थी हूँ

कीजे क्षमा दोष त्रुटी स्वामी
राम नमामि नमामि नमामि

-पुष्यमित्र उपाध्याय

Thursday, December 13, 2012

पता तो चले

और कितनी है जुदाई पता तो चले
वो मेरी है या पराई, पता तो चले

यूं बहारों पे कब्ज़ा यूं फिजाओं पे हुक्म
अदा ये किसने सिखाई पता तो चले

कँवल खिलने लगे अब्र जलने लगे
किसने ले ली अंगडाई पता तो चले

ये किसने छुआ है, ये किसका नशा है
ये कली क्यों बलखाई पता तो चले

चाँद खिलने लगा गुल महक से गये
मेहँदी किसने रचाई पता तो चले

खोलकर आज गेसू वो मुस्कुरा गये
मौत किसपे है आई पता तो चले

गनीमत यही उन्हें मुहब्बत तो हुई
कुछ उन्हें भी तन्हाई पता तो चले

-पुष्यमित्र उपाध्याय

फूल ताउम्र तो बहारों में नहीं रहते

फूल ताउम्र तो बहारों में नहीं रहते
हम भी अब अपने यारों में नहीं रहते

मुहब्बत है गर तो आज ही कह दो मुझसे
ये फैसले यूं उधारों में नहीं रहते

अब जानी है हमने दुनिया की हकीकत
अब हम आपके खुमारों में नहीं रहते

दिल तोड़ दो बेफिक्र कोई कुछ न कहेगा
ये छोटे से किस्से अखबारों में नहीं रहते

मेरा रकीब भी आज मेरी खिलाफत में है
लोग हमेशा तो किरदारों में नहीं रहते

बस वजूद की ही जंग है महफिलों में बाकी
वो तूफ़ान भी अब आशारों में नही रहते



-पुष्यमित्र उपाध्याय

Wednesday, December 12, 2012

समंदर

बिना तुम्हारे भी
देखो मेरी कश्ती, चल तो रही है
पतवार भी है
और मैं भी
दूर दूर तक समंदर है
नीला नीला
अपनी धुन में बहता हुआ
कोई लहर छेड़ जाती है
कोई सहारा ही दे जाती हैं
कोई कोई डरा भी देती है
मगर अब ज्यादा डर नहीं लगता
अकेला हूँ न!
यहाँ हवाएं हैं...मौसम है....
और गुनगुनी धूप भी
सब रंग देखता हूँ तुम्हारे बिना भी
हाँ मगर
मुझे पता नहीं कि किनारे कहाँ हैं
शायद पीछे छूट गये हों
मैंने देखा न हो
वो जो पतवार है ना
उसे कई दिनों से छुआ नहीं मैंने
अब कश्ती का रुख हवा तय करती है
और मंजिल..................
नहीं अब इसकी जरुरत भी नहीं
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Monday, December 10, 2012

सर्दियां

उस साल
कहर सी थी सर्दी
ठिठुरन बढ़ रही थी
हमने जेहन में खड़े कुछ दरख्त काटे
और जला लिए कागज़ पर
ज्यादा तो नहीं मगर हाँ....
थोड़ी तो राहत मिल ही गयी
पास से गुजरते हुए लोग भी
तापने के लिए बैठने लगे
अलाव धीरे धीरे... महफ़िल सा बन गया
 अलाव जब बुझ गया ..लोग चले गये
फिर तो
रोज़ ही हम कुछ दरख्त काट लाते
रोज़ अलाव जलता रोज़ ही लोग आते
इस तरह हर रोज़ महफ़िल सजने लगी
मगर एक ताज्जुब ये था कि
रोज़ ही काटे जाने पर भी
दरख्त कभी कम नहीं होते थे
एक भी नही....

-पुष्यमित्र