Wednesday, December 12, 2012

समंदर

बिना तुम्हारे भी
देखो मेरी कश्ती, चल तो रही है
पतवार भी है
और मैं भी
दूर दूर तक समंदर है
नीला नीला
अपनी धुन में बहता हुआ
कोई लहर छेड़ जाती है
कोई सहारा ही दे जाती हैं
कोई कोई डरा भी देती है
मगर अब ज्यादा डर नहीं लगता
अकेला हूँ न!
यहाँ हवाएं हैं...मौसम है....
और गुनगुनी धूप भी
सब रंग देखता हूँ तुम्हारे बिना भी
हाँ मगर
मुझे पता नहीं कि किनारे कहाँ हैं
शायद पीछे छूट गये हों
मैंने देखा न हो
वो जो पतवार है ना
उसे कई दिनों से छुआ नहीं मैंने
अब कश्ती का रुख हवा तय करती है
और मंजिल..................
नहीं अब इसकी जरुरत भी नहीं
-----------------------------------------

No comments:

Post a Comment