Tuesday, June 4, 2013

रात का भूला हिस्सा

रात जवां होके ढलने को है
हवा हर अदा खेल चुकी
तारों ने समेट ली नुमाईश अपनी
चाँद ने भी ढूंढ़ लिया एक कोना
बारात लौट जाने के बाद उतरने लगती है जैसे रौनक
सिमटने लगतीं हैं झालरें
अजीब सा सन्नाटा पसरा है सड़कों पर
कोने गूंजते हैं
जैसे किसी खूंखार जानवर के नुकीले दांतों से गुज़रती हुई साँसों का शोर
जैसे कराहता कोई परिंदा
ना नींद ....न बेचैनी
बस वक़्त का एक टुकडा
रात का एक हिस्सा
कहानियों में उपेक्षित
प्रेम से निष्कासित
कविताओं से भूला
ये पहर
देखता हूँ रात को भी इस वक़्त में तनहा
देखता हूँ मौन को चीखते हुए.....

-पुष्यमित्र उपाध्याय

1 comment:

  1. हवा हर अदा खेल चुकी.....



    देखता हूँ मौन को चीखते हुए.....

    Very nice, keep continue.

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