Monday, August 19, 2013

वक्त वक्त और मोदी भक्त



आज कल दो चीजें ही देखने को देश में रह गयीं हैं, एक तो मोदी भक्ति और दूसरी मोदीभक्ति से दुखी लोग! ये भारत के लिए नई बात नहीं है कि कोई नेता इस कदर सुर्ख़ियों में आ जाए और उसे लेकर गुटबाजी चरम पर हो| २०११ में अन्ना को लेकर भी देश में ऐसा ही माहौल बना था| लोग लोकपाल के लिए अनशन पर बैठे अन्ना की भक्ति में इस कदर डूबे हुए थे कि उन्हें अन्ना के आगे कोई रास्ता नहीं दिखाई देता था| वहीँ सत्ताधारी कांग्रेसी समर्थक अन्ना भक्ति से इतने क्षुब्ध थे कि न तो इसे पचा पा रहे थे, और ना ही भ्रष्टाचार विरोधी भावना को नकार पा रहे थे|
    हालांकि अपने निजी विचार से मैं कहना चाहता हूँ कि इन दोनों में से किसी की भी भक्ति बुरी नहीं थी| पिछले कुछ वर्षों से जब भ्रष्टाचार, महंगाई और अन्याय, उत्पीडन की अति जनता को अनुभव होने लगी तब उसे महसूस हुआ कि कोई तो नेता होना चाहिए जो इसका विरोध करे| जब रामदेव आगे आये तो तो उनके काले धन सम्बन्धी आन्दोलन को धर्म विशेष से जोड़कर दिखाया गया| और कह सकते हैं कि मीडिया द्वारा उनके आन्दोलन को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया गया| परिणाम स्वरुप उनके आन्दोलन से पूरा देश जुड़ नहीं पाया और एक सीमित भीड़ वाले आन्दोलन को सरकार द्वारा रातों रात बल पूर्वक दमन कर दिया गया| इस बात का गुस्सा लोगों में पनप ही रहा था कि अन्ना के लोकपाल आन्दोलन की शुरुआत हुई| रामदेव का जो आन्दोलन दमन किया गया था उससे उपजा क्रोध का लाभ अन्ना के आन्दोलन को मिला और अपेक्षा से भी अधिक मिला; साथ ही मीडिया का सहयोग भी भरपूर रहा, क्यों कि इस आन्दोलन के साथ किरण बेदी जैसी लोकप्रिय छवि भी जुडी हुई थीं| इस आन्दोलन के बाद से अन्ना भक्ति का जो दौर शुरू हुआ वो किसी से छिपा नहीं है| अन्ना के पास कोई भी विशेष राजनीतिक अनुभव ना होने के बाद भी, लोग उनको राजनीति का ध्रुव तारा मान बैठे थे| छोटी-छोटी बातें हो या विदेशी मुद्दे अन्ना की राय ही देश की राय बन जाती थी| अन्ना द्वारा सभी राजनीतिक पार्टियों को एक तरफ से भ्रष्ट घोषित कर देने के बाद, जनता का लोकतान्त्रिक संस्थाओं से भरोसा ही उठ चुका था| इन सब से अन्ना इतने उत्साहित थे, कि रामदेव के आन्दोलन पर सुहानुभूति जताते जताते उन्हें राजनीति में नौसिखिया तक घोषित कर डाला था| खैर ये बात अलग है कि रामदेव की राजनीति समझ पाना हर किसी के बस की बात नहीं| मगर वो बातें अलग हैं; बात ये है कि फिर इस आन्दोलन के साथ क्या हुआ| इस आन्दोलन का एक भीतरी कमज़ोर पक्ष था कि ये आन्दोलन पूरी तरह बस लोकपाल की जिद तक ही सीमित था| इसमें जनता की मूलभूत समस्याओं जैसे महंगाई,बेरोज़गारी, असुरक्षा, महिला उत्पीडन, उपेक्षा की कोई बात नहीं करता था| फिर भी लोग भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के साथ सिर्फ इसलिए जुड़े थे, कि कम से कम एक मुद्दे पर तो हमारा पक्ष रखा जा रहा है| नतीजा ये हुआ कि आन्दोलन बेअसर होने पर जनता के मन में अरुचि घर कर गयी, जिसका प्रभाव अन्ना के मुम्बई में हुए आन्दोलन में देखने को मिला| अन्ना की लोकप्रियता बढ़ चुकी थी इसका सीधा फायदा अरविन्द केजरीवाल ने उठाया और अन्ना की तरह अनशन कर के अन्ना की भीड़ को अपना समर्थक बनाने की कोशिश की| फिर जो भक्ति अन्ना की थी वही भक्ति केजरीवाल के लिए शुरू हो गयी| मगर केजरीवाल का अनशन बिना कारण और बिना समाधान के ख़त्म हो जाने से कई समर्थकों को धक्का लगा| और उन्हें इस तरह के आन्दोलनों से अरुचि हो गयी| इस अरुचि को विरोध में बदलने का काम भी खुद अरविन्द ने राजनैतिक पार्टी बनाने की घोषणा के साथ कर दिया| ये आग में घी डालने जैसा था; क्यों कि खुद अरविन्द और अन्ना ने ही पार्टी विरोधी बातें लोगों में भरी थीं| नतीजन जो लोग अन्ना के लिए जान देने तक उतारू थे वे अन्ना और केजरीवाल को अन्य राजनीतिक पार्टियों के समकक्ष ही समझने लगे| कुल मिला कर पूरे घटनाक्रम में कई लोग ठगा हुआ अनुभव करने लगे|
    इन आन्दोलनों के असफल होने का सीधा फायदा भाजपा को हुआ| चूंकि जनता सभी को आजमा कर देख चुकी थी और समझ चुकी थी कि लोकतान्त्रिक समस्याओं का हल लोकतान्त्रिक तरीकों से ही निकल सकता है; आन्दोलन या अनशन से नहीं! क्यूँ कि अनशन और आन्दोलन या तो दबा दिए जाते हैं, या फिर बहला फुसला कर शक्ति हीन कर दिए जाते हैं| इसीलिए लोगों ने अब आन्दोलनों में जमा होना बंद कर दिया| और खुद को लाचार समझ कर राम भरोसे हिन्दुस्तान छोड़ दिया| मगर एक बात जरुर थी कि लोग ये धारणा बना चुके थे कि उनकी हर समस्या की जिम्मेदार कांग्रेस की निरंतर चली आ रही सत्ता है| जो बहुमत में होने के कारण धीरे धीरे तानाशाह होती जा रही है|  ऊपर से देश के मुखिया बुत बने हुए हैं जो सिर्फ आदेशों को थोपना ही जानते है| एवं इस सत्ता को चुनाव में ही हराया जा सकता है वो भी सिर्फ भाजपा द्वारा ही| क्यों कि बाकी सभी पार्टियाँ तो कांग्रेस को ही समर्थन करने में लगी हुई हैं| और भाजपा में भी अटल जी के सन्यास लेने के बाद कोई भी राष्ट्रीय स्तर का प्रखर और सक्रिय नेता दिखता नहीं था, जो प्रचंड होकर कांगेस से मुकाबला कर सके और जिसके नाम पर एक मत हुआ जा सके| मगर गुजरात चुनाव में लगातार तीसरी बार जीत कर नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा| इसका प्रमुख कारण थी उनकी विकास आधारित राजनीति और अपने फैसलों पर अडिग रहने की आदत | लोगों को लगा कि यही वो नेता है जो उन्हें कांग्रेस के कमज़ोर और प्रभावहीन शासन से बेहतर विकल्प दे सकता है| जो विदेश नीतियों और सीमा सुरक्षा जैसे मुद्दों पर देश की ओर से आक्रामक पक्ष रख सकता है| मोदी के भक्त हालांकि अन्ना की ही तरह बने हैं मगर दोनों में अंतर इतना है कि अन्ना को लोगों ने समर्थन बिना शर्त के दिया| जबकि मोदी ने खुद को गुजरात की कसौटी पर सिद्ध किया और राष्ट्रीय छवि पायी| लोगों को मोदी से उम्मीदें हैं कि जिन मुद्दों पर कांग्रेस ने देश को ७० के दशक में धकेल दिया है, मोदी उससे उन्हें उबार सकेंगे| २००१ की भयानक त्रासदी से उबरने के साथ-साथ गुजरात ने जो उन्नति की; उसमें निश्चित ही मोदी के प्रभावी और सशक्त शासन का बड़ा योगदान है| वर्ना जनता कभी किसी को इतनी देर तक टिकने नहीं देती| ये केवल कोरी बातें नहीं बल्कि केंद्र सरकार द्वारा गुजरात को विभिन्न क्षेत्रों में प्रदान किये गये पुरुस्कारों की गवाही है| खुद योजना आयोग ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को सौर ऊर्जा पर गुजरात से प्रेरणा लेने की सलाह दी है| मोदी ने अपने भक्त खुद नहीं बनाये, ना ही लोगों का प्यार ख़रीदा है; बल्कि लोगों ने ही मोदी को 'रेम्बो' बनाया है| बहुत से काम गुजरात में मोदी ने किये, मगर उससे कहीं ज्यादा अपेक्षाएं उनसे लोगों ने कर डालीं हैं| अन्ना का वक्त था जब राजनेताओं से लोग चिढने लगे थे, और उसके बाद आज आलम ये है कि मोदी के प्रशंसक उनकी तारीफ़ में इतने ऊपर चले जाते हैं जो यथार्थ से काफी भिन्न होता है|अटल जी के बाद किसी राजनेता को इतना प्यार नहीं मिला जितना कि आज मोदी को मिल रहा है| मोदी को लोगों ने राजनेताओं के लम्बी सूची में से चुन कर राष्ट्रीय नेता बनाया है| मोदी भाजपा द्वारा मुख्यधारा में नहीं जोड़े गये हैं,बल्कि उनके लोगो ने उन्हें अपना नेता घोषित कर लिया है| सभी जानते हैं कि मोदी विरोधी लोग जितने बाहर हैं उतने ही उनकी अपनी पार्टी में भी हैं, जिन्हें मोदीभक्तों से कुढ़न होती है, ये एक सामाजिक तथ्य भी है कि जिसे ज्यादा प्यार मिलता है उससे चिढने वाले भी बढ़ जाते हैं| साफ़ शब्दों में कहें तो लोगों ने मोदी को अपना नेता चुना है और कट्टर ढंग से चुना है| आज मोदी की मांग भाजपा से अधिक हो चुकी है| इसका एक कारण उनकी हिंदुत्व और राष्ट्रवादी छवि हो सकती है मगर उनके भक्तों में श्री कलाम के समर्थक भी हैं,सलमान खान के समर्थक भी हैं, युसूफ पठान के समर्थक भी हैं | जो लोग कल अन्ना से जुड़े थे वे अंतिम विकल्प के रूप में मोदी को देख रहे हैं| इसीलिए लोग मोदी की तरफ हुए हैं, और अतिवाद की अपनी आदत के कारण मोदी भक्त कहला रहे हैं| दूसरी तरफ सत्ता बनाये रखने के लिए कांग्रेस राहुल गांधी को आगे करके पुराने गांधी परिवार के दीवानों को जोड़े रखना चाहती है| इसीलिए राहुल गांधी के भक्त तैयार किये जा रहे हैं, जिनका काम है कि मोदी को साम्प्रदायिक सिद्ध करके सेकुलरिज्म के समर्थक अपनी ओर खींचे जाएँ तथा मोदीभक्तों से अधिक संख्या बढ़ाई जाए| मगर लोगों को मोदीभक्ति की राह पर खुद कांग्रेस ने धकेला है| चाहे "विदेशी और सैन्य नीतियों की असफलताएं" हों या "आर्थिक और घरेलू नीतियों पर असंवेदनशीलता", कांग्रेस ने खुद को आम आदमी से दूर रखा और पूंजीपतियों को संरक्षण देती रही| आम आदमी की जो मूल समस्याएं हैं वे बिजली दरों और पेट्रोल-डीजल में बेहिसाब वृद्धि, अन्न पर महंगाई की मार, दिन प्रति दिन बढती बेरोज़गारी है| आम आदमी अपने भविष्य को लेकर चिंतित है क्यों कि वह जानता है कि सीमित आय में इससे ज्यादा वृद्धि असहनीय और दमघोंटू हो जायेगी! छोटे घरेलू धंधे चौपट हो जायेंगे! लैपटॉप और मोबाइल बांटने की फिजूलखर्ची सरकार जो धन लुटा रही है उसका बोझ उसी आम आदमी पर डाल दिया जाएगा| आदमी इतना डरा हुआ और निराश है कि वह फिर से सत्ता ऐसी असंवेदनशील सरकार को नहीं सौंपना चाहता | इसी भय और चीख पुकार में उन्हें जो तिनका भी लग रहा है वह सिर्फ नरेन्द्र मोदी हैं | अपने इस हाल से उबरने के लिए वह अंधभक्ति करने को भी तैयार है| क्यों कि इसके अलावा कोई और विकल्प उन्हें दिखता भी तो नहीं?

-पुष्यमित्र उपाध्याय
एटा

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