Friday, November 21, 2014

ना जाने क्या वक़्त, क्या ज़माना होगा
तुम्हारे होठों पे जाने क्या तराना होगा

अभी तो तमाम हैं तुमसे मिलने के सबब
इक वक़्त बाद कुछ भी न बहाना होगा

न जाने कौन सा दिन फिर मुकम्मल हो
जब तेरे चेहरे का नज़र आना होगा

तुम्हारे बस में हुआ तो ठहर जाओगे तुम
मेरा बस तो अज़नबी सा गुज़र जाना होगा

तुम्हारे नूर पे कई चाँद खिल चुके होंगे
मेरे तो जुनून को भी उतर जाना होगा

तुम्हारे गैर होने पर होगी घुटन मुझको
मगर ये तय है कि मुस्कुराना होगा

इसी ख्याल में आजकल बीत जाता हूँ मैं
किस हद तक आखिर ये सब निभाना होगा

-पुष्यमित्र उपाध्याय

No comments:

Post a Comment