Friday, January 30, 2015




जैसे घाव पर फूँक गर्म सी लगती है
उसी तरह शायरी अच्छी लगती है

मुझसे मिलता है वो अब भी तल्खी से
मगर आज कल कुछ तो नमी लगती है

तुम्हें जीतने का जुनूँ गया नहीं मेरा
बस धडकन ही हार चुकी लगती है

ये तुम्हारी नज़र वो मेरी दीवानगी 
छोडो बहुत हुआ सब पुरानी लगती है

ये लो ये आखरी मिसरा भी गया
ये लो ये बात भी खत्म हुई लगती है

-पुष्यमित्र
तुम्हेँ भी महसूस होती है कमी मेरी।
मुझे भी मैँ बहोत याद आता हूँ..
मुश्किल हर इक राह हो रही होगी,
ये अक्ल भी गुमराह हो रही होगी

उड चुका होगा होश जुनूँ का
हर तरफ वाह वाह हो रही होगी..

गिर गए होंगे सब ख़ाब शीशों से,
ख़ाली मिरी निगाह हो रही होगी..

अभी चुभती है पल भर की जुदाई,
फिर जिन्दगी निबाह हो रही होगी..

नहीं हुआ होगा लोगों को यकीन,
मगर हस्ती तबाह हो रही होगी..

-पुष्यमित्र
ख़ाब मेरा जब दिल से मिटाया होगा
कोई तो ख्बाव खुद को दिखाया होगा
.
दस्तकें लौटा दीं ये कह कर के हमने
इतनी रात गये अब कौन आया होगा
.
बिछड कर मिलने वाले सोचते क्यूँ नहीं
किस तरह दिल ने उन्हें भुलाया होगा
.
उसने तोड दिया वादा तो कैसा गिला
उसने कोई और वादा निभाया होगा
.
इश्क़ वालो अब यही गुमाँ पालो कि वो
चाहा तो होगा मगर आ न पाया होगा...
.
-पुष्यमित्र
खलबली है शहर-ए-दिल की तबाह गलियों में,
शाम हो गयी है, तेरी याद के लश्कर फिर आते होंगे ...
भरे मेले में
किसी खिलौने की ज़िद पर 
छुडा कर के हाथ दौड़ जाता है
कोई बच्चा.. जैसे
और जाकर ख़डा हो जाता है,
खिलौने की उस दुकान के आगे....
रुह का कोई हिस्सा भी वैसे,
छूट गया था उस मंज़र में...
जम गया था जैसे वहीं,
तुम्हारा हो जाने के लिए..
कभी अब साल दो सालों में ,
जब गुज़रना होता है वहाँ से...
देख़ आता हूँ, उस रूह के टुकड़े को..
आज भी तुम्हारे इंतज़ार में बेचैन होते हुये;
मैं जानता हूँ वहां से , तुम्हारा अब गुज़रना नहीं होता
मगर वो ये बात नहीं जानता...
मैं भी तो कुछ बताना नहीं चाहता उसे..
ना जाने कब तक वो ख़डा रहेगा यूं ही 
ना जाने फिर कब गुज़रोगी तुम वहाँ से
अब तो कई दिन बीत चुके
अब तो कई साल हो गए
अब तो खत्म हो गया वो मेला भी
ख़त्म दिल से दिल्लगी हो गयी होती
ज़िंदगी भी क्या ज़िंदगी हो गयी होती ?

जज्बों को हो आया फिर ये तक मंज़ूर,
कि तुमसे बस दोस्ती ही हो गयी होती

ना हुए होते आबाद दर्द के ये अंधेरे, 
तबाह महफिल की रौशनी हो गयी होती

काश! न किया होता इश्क को झूठा तूने, 
काश! कि झूठी हर शायरी हो गयी होती

-पुष्यमित्र
क्या हुआ जो असल में न चल सकी मर्ज़ी, 
ख़ाब ही कब देखे थे अपनी मर्ज़ी से हमने ..
ये वक़्त भी कब मिला..? 
जो हदेँ सोच पाते अपनी हम ;
कोई अच्छा लगा और....
.......लगता चला गया !
सोचता हूँ 
अब एक ख़त लिख़ूँ तुम्हें..
भर दूँ उसमें अपने सारे ही सवाल ओ हाल..
और लिफाफे पे तुम्हारा सिर्फ नाम ही लिखकर,
छोड आऊँ पोस्ट बॉक्स के अंधेरे में..
फिर एक फ़िक्र पालूँ
कि ख़त पहुँचा होगा या नहीं?
फिर एक गुमाँ उठाऊँ..
कि तुमसे आख़िर कह ही दिया मैंने..
और फिर करता रहूँ इंतेज़ार ..
सालों-साल तक तुम्हारे जवाब का.!
जबकि हकीकत में, 
बयाँ-ए-मुहब्बत भटक रहा होगा दर बदर...बेपता सा।
ये कुछ भी हो...
मैं बस इक उम्मीद फिर जीना चाहता हूँ....
बस वही उम्मीद
-पुष्यमित्र

Saturday, January 3, 2015

तेरे सब ख्वाब संभाल कर रखे हैं मैंने
कही जाता हूँ तो पहन कर चला जाता हूँ
फिर सर्द हवाएं तंग नहीं करती
और
जब लौट आता हूँ थक कर
तो रख कर इन्हें सिरहाने लेट जाता हूँ
सो जाता हूँ
इनसे ग़ुफ़्तगू करते करते
इस तरह नए खाब मुझे सताया नहीं करते
जब याद के कई दौर गुजर चुके होँगे
तेरी आँखोँ से मेरे जुनूँ के खत उतर चुके होगे
तू मशरूफ होगा हद ए इश्क नये बनाने मेँ
मैँ हूँगा कि हदोँ से गुजर जाने मेँ,
यादोँ का एक हिस्सा तब तक जल चुका हो
तब तक दुपट्टा भी पल्लू मेँ बदल चुका होगा
तुझसे कभी मिल पाऊँगा मैँ सोचता हूँ
किस अदा से भूल जाऊँगा मैँ सोचता हूँ
मैँ सोचता हूँ पुरानी वफायेँ लिहाफोँ मेँ गढ चुकीँ होगीँ
तेरे बदन पे साडियाँ नयी जड चुकी होगी
नयी कसमोँ का दौर चला होगा
उफ किस तरह रिश्ता बुना होगा
ज़हन के बाग़ में बहार आई है फिर 
खिल आई हो फिर तुम किसी नन्हे पौधे पर फूल बनकर
सोचता हूँ आगे बढ़कर तोड़ लूँ तुम्हें 
मगर डरता हूँ कि
कही अलग होकर शाख से
तुम मुरझा गयी तो?
मेरे हाथों में कितनी देर तक महक पाओगी तुम?
वैसे इस शाख पर भी
एक दिन तुम्हें सूख ही जाना है
है न?