Friday, January 30, 2015

भरे मेले में
किसी खिलौने की ज़िद पर 
छुडा कर के हाथ दौड़ जाता है
कोई बच्चा.. जैसे
और जाकर ख़डा हो जाता है,
खिलौने की उस दुकान के आगे....
रुह का कोई हिस्सा भी वैसे,
छूट गया था उस मंज़र में...
जम गया था जैसे वहीं,
तुम्हारा हो जाने के लिए..
कभी अब साल दो सालों में ,
जब गुज़रना होता है वहाँ से...
देख़ आता हूँ, उस रूह के टुकड़े को..
आज भी तुम्हारे इंतज़ार में बेचैन होते हुये;
मैं जानता हूँ वहां से , तुम्हारा अब गुज़रना नहीं होता
मगर वो ये बात नहीं जानता...
मैं भी तो कुछ बताना नहीं चाहता उसे..
ना जाने कब तक वो ख़डा रहेगा यूं ही 
ना जाने फिर कब गुज़रोगी तुम वहाँ से
अब तो कई दिन बीत चुके
अब तो कई साल हो गए
अब तो खत्म हो गया वो मेला भी

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