Friday, January 30, 2015

सोचता हूँ 
अब एक ख़त लिख़ूँ तुम्हें..
भर दूँ उसमें अपने सारे ही सवाल ओ हाल..
और लिफाफे पे तुम्हारा सिर्फ नाम ही लिखकर,
छोड आऊँ पोस्ट बॉक्स के अंधेरे में..
फिर एक फ़िक्र पालूँ
कि ख़त पहुँचा होगा या नहीं?
फिर एक गुमाँ उठाऊँ..
कि तुमसे आख़िर कह ही दिया मैंने..
और फिर करता रहूँ इंतेज़ार ..
सालों-साल तक तुम्हारे जवाब का.!
जबकि हकीकत में, 
बयाँ-ए-मुहब्बत भटक रहा होगा दर बदर...बेपता सा।
ये कुछ भी हो...
मैं बस इक उम्मीद फिर जीना चाहता हूँ....
बस वही उम्मीद
-पुष्यमित्र

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