उसकी ख्वाहिशों पर नही कोई गिला मुझको,
रंज बस ये है कि वो नही मिला मुझको|
रखता है वो नज़रों में नापाक मुरादें ही अक्सर,
सिखाता है मगर होठों से ,सलीका-ऐ-वफ़ा मुझको|
रौशन करता है हर ज़र्रे को वो नूर से यूँ तो,
मगर सौगातों में उसने बस अँधेरा ही दिया मुझको|
भले ही मंजिलें मेरी छीनीं नही कभी उसने ;
मगर रास्ते भी तो कभी करता नही अता मुझको|
नीयत बिगाड़ देना ही रही नीयत सदा उसकी;
मेरे लिए है क्या नीयत,नही कुछ भी पता मुझको.........
Thursday, September 30, 2010
फैसला ३.३० का......
मैं क्या करूँ इंतज़ार इक फैसले के आने का?
एक जिरह है मेरी दो आँखों से, वो तो ख़त्म होगी नही........
न पढ़ सका,मैं मोहब्बत से बड़ा मज़हब कोई
मेरा तो राघव भी वो ,रहमान भी वो ही .......
एक जिरह है मेरी दो आँखों से, वो तो ख़त्म होगी नही........
न पढ़ सका,मैं मोहब्बत से बड़ा मज़हब कोई
मेरा तो राघव भी वो ,रहमान भी वो ही .......
Wednesday, September 29, 2010
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