देखा है कई बार
अनीति के बढ़ते क़दमों को
शिखर तक जाते हुए
देखा है कई बार
दुष्टों को....सूर्य पर मंडराते हुए
किन्तु कभी नहीं सोचा
कि होकर शामिल उनमें
मैं भी पाऊं सामीप्य गगन का/
ना ही सोचा कि मैं छोडूं
धरा नीति की
और विराजूं उड़ते रथ में/
है भीतर कुछ ऐसा बैठा
देता नहीं भटकने पथ में/
हे ईश् मेरे कहीं वो तुम तो नहीं
देखा है कई बार
सत्य को युद्धरत/
क्षत विक्षत...आहत/
सांस तक लेने के लिए
लड़ते हुए/
मीलों तक कदम रगड़ते हुए/
किन्तु कभी भी डिगा नहीं मन
घायल कितना हुआ भले तन
कभी नही मैं सोच सका ये
छोड़े साथ धर्म का जीवन
जीता है संकल्प अभी भी
प्राण अभी रहते हैं शपथ में
है भीतर कुछ ऐसा बैठा
देता नहीं भटकने पथ में/
हे ईश् मेरे कहीं वो तुम तो नहीं
यदि वो तुम ही हो...तो तुम सब में क्यों नही?
क्यों नही रोक लेते कदम अनीति के/ अधर्म के
तुम तो जगत के स्वामी हो न...
-पुष्यमित्र उपाध्याय
अनीति के बढ़ते क़दमों को
शिखर तक जाते हुए
देखा है कई बार
दुष्टों को....सूर्य पर मंडराते हुए
किन्तु कभी नहीं सोचा
कि होकर शामिल उनमें
मैं भी पाऊं सामीप्य गगन का/
ना ही सोचा कि मैं छोडूं
धरा नीति की
और विराजूं उड़ते रथ में/
है भीतर कुछ ऐसा बैठा
देता नहीं भटकने पथ में/
हे ईश् मेरे कहीं वो तुम तो नहीं
देखा है कई बार
सत्य को युद्धरत/
क्षत विक्षत...आहत/
सांस तक लेने के लिए
लड़ते हुए/
मीलों तक कदम रगड़ते हुए/
किन्तु कभी भी डिगा नहीं मन
घायल कितना हुआ भले तन
कभी नही मैं सोच सका ये
छोड़े साथ धर्म का जीवन
जीता है संकल्प अभी भी
प्राण अभी रहते हैं शपथ में
है भीतर कुछ ऐसा बैठा
देता नहीं भटकने पथ में/
हे ईश् मेरे कहीं वो तुम तो नहीं
यदि वो तुम ही हो...तो तुम सब में क्यों नही?
क्यों नही रोक लेते कदम अनीति के/ अधर्म के
तुम तो जगत के स्वामी हो न...
-पुष्यमित्र उपाध्याय