Sunday, October 7, 2012

तुमसे कहने को

तुमसे कहने को
थीं जो बातें मन की,
तुम्हें बताने को
थे जो भाव ह्रदय के,
उन सब के लिए
बहुत छोटे थे,
तीन या चार शब्द/
कैसे सुलझते?
नैनों में बरसों से उलझते धागे..
कैसे होता मुखर मैं?
तुम्हारी मौन मूरत के आगे...
नेह के अनंत ग्रन्थ,
अनगिन ऋचाएं प्रीत की,,
सौंपता तुम्हें कभी..
सोचा था ऐसा/
मगर हम दोनों के ही रास्तों ने
इतना भी अवसर कब दिया......?
-पुष्यमित्र उपाध्याय

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