Monday, October 7, 2013

यूं ही पुराने पन्नों से....

यूं ही पुराने पन्नों से....
जब कभी बादल उतरने को होते हैं जमीं पे
और घिर आती है रंगत शाम की सी;
बगावत करते हैं कुछ लम्हे|
वो एक उजली सी शक्ल,
होती है हमराह,
किताबों जैसी बातें लिए/

गली से चौराहे तक के सफ़र में,
अक्सर हथेलियाँ टकरा जातीं है..
कोई कोशिश,
कोई साज़िश नहीं होती...
बस बगावत करते हैं कुछ लम्हे/

मगर लब चुप हो जाते हैं फिर
किताब चाहती तो बहुत कुछ है कहना
मगर आज नहीं/
किताब जानती भी है बहुत कुछ
मगर हर बात को बताना जरुरी तो नहीं/
और चौराहे तक बदल जाते हैं रास्ते/

यूं ही वरक दर वरक,
खत्म होतीं हैं सब बातें किताबों की|
कि अब सिर्फ खामोशियाँ चलती हैं,
उस गली से चौराहे तक|
न लम्हे बगावत करते हैं...
न हथेलियाँ टकराया करती हैं;
बहुत कुछ संभल गया है,
इस कहने समझने के फेर में/

किताबें बहुत कुछ कहती हैं
मगर सब कुछ नहीं |

       
         -पुष्यमित्र

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