Saturday, September 28, 2019

हम छोटे कस्बों के लोग...
मंज़िलों की तलाश में,
जब निकलते हैं बड़े शहरों की तरफ..
तो पीछे सिर्फ गलियां नहीं छूटतीं,
छूटते हैं कई अधकच्चे ख़्वाब,
कई बेफिक्र नींदें,
कई इंतज़ार, कई उम्मीदें
सुबहों की दौड़ती ठिठोली,
शामों की आवारा सी टोली..
एक दुल्हन सा चाँद छत का,
बारात कई तारों की,
किसी एहसास से बंधे सच्चे वादे,
किसी गली में बची बैटिंग की बारी,
एक गुमान, एक बेकरारी..
पीछे छूट जाती है...
किसी हां के इंतज़ार में रुकी हुई जिंदगी
उम्रभर के लिए किसी हसीं चेहरे की रौशनी,
पीछे बस घर नहीं छूटता,
रूह छूट जाती है..
और चला जाता है जिस्म जिंदगी ढ़ोने...
हम जानते हैं,
कि वो रूह फिर कभी नहीं मिलेगी...
हम छोटे कस्बों के लोग,
जब निकलते हैं बड़े शहरों की तरफ,
तो कभी नहीं लौटते.............
सवाल कुछ नहीं पर जवाब बने रहते हैं,
हम बेसबब ही बेताब बने रहते हैं..
जाने क्या कहते हैं, क्या कह नहीं पाए?
कोई पागल सी किताब बने रहते हैं...
वो सच मानकर आएगा मुकम्मल करने,
सो सुबह की नींद का ख़्वाब बने रहते हैं..
वक्त पर चले आते हैं रौशनी लेकर,
गोया कोई पेशेवर आफ़ताब बने रहते हैं..
भूल जाते हैं लोग डायरी में रखकर हमें,
हम याद दिलाने को गुलाब बने रहते हैं..
प्रेम में पलायन नहीं होता
प्रेम में होता है एक अंनत तप
स्वयं को सौंप देने का
यज्ञ सा झोंक देने का
अस्तित्व फूंक देने का
अंश अंश स्वाह कर देने का
या होता है रण
उसे छीन लेने का
अपना लेने का
आत्मा सा बसा लेने का
ईश्वर बना लेने का!
कुछ भी हो प्रेम में पलायन नहीं होता।
और तुम?
वह न मिला तो उसे भुलाना चाहते हो?
स्वयं को प्रेमी कहते हो?
पाखंडी हो तुम।