Monday, December 29, 2014


दिलों के ये पत्थर पिघलने तो दो .............ज़रा होश अपने संभलने तो दो

चमन तो ये सारा जला ही दिया..... किसी गुल को थोड़ा सा खिलने तो दो

अंधेरों से डरते हैं सब ही यहां............... ज़रा सा ये सूरज निकलने तो दो

ये आँखें ही कल की हकीकत रचेंगी... मगर आज ख्वाबों को पलने तो दो

-पुष्यमित्र उपाध्याय

मैंने
तुम्हारे घर में,
और तुमने
मेरे घर में,
एक दूसरे की.. कई चीज़ें छुपा दी हैं
चलो
अब सारी उम्र
हम दोनों ..उन चीज़ों को खोजें
और फिर कभी,
ढूंढ लेने पर...
_एक दूसरे को बताएं:
कि
"ये कितना आसान था"
कि
"तुम्हें तो कुछ छुपाना भी नहीं आता"
.
तो
यही खेल है अब!

-पुष्यमित्र
मैंने आस नहीं छोडी है, तुम में लय हो जाने की.
तुम से फिर मिल जाने की, तुम में फिर खो जाने की...
तुम नदिया मैं नाव सरीखा
मेरे मन में नहीं किनारे
क्या गंतव्य है कौन खिवैया,
मेरे पथ हैं तुम में सारे
मेरी कोशिश बहते-बहते, तुम में ही खो जाने की,
मैंने आस नहीँ छोडी है.......

शत शत योजन तुमसे दूरी,
पंथ सदा तकते रहना है...
सात जन्म तक प्रीत अधूरी,
पल-पल को गिनते रहना है..
यही चाह पल गिनते गिनते, स्वयं समय हो जाने की
मैंने आस नहीँ छोडी है,.........................
तुम में लय हो जाने की.
-पुष्यमित्र
सोचता हूँ कि आखिर हम अपनी मान्यताओं के पक्ष में वैज्ञानिक तर्क क्यों देते रहते हैं?
क्या विज्ञान अपने तर्कों को हमारी मान्यताओं से संपुष्ट करता है?
नहीं न?
तो क्या धर्म विज्ञान के अधीन है ?
विज्ञान को धर्म से प्रमाण मांगने का अधिकार केवल तब ही होगा जब वह ( X / 0 ) का वास्तविक मान बता सके!
नहीं तो विज्ञान धर्म को वही समझे जो (X / 0 ) को समझता है!

"हरि अनंत हरि कथा अनंता"
.............................................................................
दुनिया भर की बातों का तो हर अफसाना याद रहा
एक हम ही ना याद रहे बस और जमाना याद रहा
सूनी धड़कन बता रही है क्या थी अपनी गुस्ताखी
हम अपना गम भूल गये थे तुम्हें हँसाना याद रहा
.........................................................................
देख कि तू मेरी दौलत थी
देख तुझको मोहताज हूँ मैँ


Tuesday, December 2, 2014

हिंदी की ओर लौटो

अभी २-४ दिन पहले एक राष्ट्रीय अखबार के विशेष आलेख में पढ़ा था कि "पहले हिंदी जो कि सिर्फ किताबों में सिमटती जा रही थी, अब फिर से अपना वैभव प्राप्त करने लगी है,  Internet पर हिंदी का प्रयोग करने वाले बढ़ते ही जा रहे हैं |
   निश्चित ही ये सही बात है ,ज्यादा पुरानी बात नहीं है, जब मैंने कुछ साल पहले  facebook account  बनाया था तब यहाँ सिर्फ अंग्रेजी ही अंग्रेजी दिखाई देती थी, उस समय कुछ ही लोग थे जो नियमित हिंदी में posts किया करते थे उनकी भी उम्र औसतन ३०-३५ से ऊपर की ही मिला करती थी| हिंदी लिखना technically तो बड़ी बात थी, मगर कुछ आधुनिकता वादियों के लिए यह एक रूढ़िवादी और  उन्नति न करने का द्योतक थी| यहां तक कि मुझे मेरे college में भी अक्सर कुछ साथियों द्वारा हिंदी को लेकर उपहास से साक्षात्कार करना पड़ता था| परन्तु जो भी था अच्छा लगता था हिंदी में लिखना| अब अंग्रेजी में हाथ तंग होने का इसे बहाना भी माना जा सकता है| :P
   मगर अपने जैसे साथी और अग्रज निरंतरता से लगे रहे और अब धीरे धीरे हम सभी ने मिलकर यह स्थिति उलट दी है, अब भारतीय Internet पर न सिर्फ हिंदी का प्रभुत्व बढ़ रहा है बल्कि जोरदार तरीके से बढ़ रहा है| सिर्फ भारतीय क्षेत्र के ही नहीं अनेक अप्रवासी भारतीय भी हिंदी में लिखना पसंद कर रहे हैं|
     हालांकि हममें से कुछ लोग orkut के जमाने से हिंदी लिख रहे हैं और कुछ हिंदी Websites, Blogs उससे भी पहले से सक्रिय हैं, मगर हिंदी के लिए जो facebook  ने किया वह हमेशा ही यादगार रहेगा| facebook  ने हिंदी बोलने वालों को जोड़ा है, और इसे एक संगठन के रूप में स्थापित होने का अवसर दिया| जो लोग कल तक हिंदी को लेकर हमारा मज़ाक उड़ाया करते थे आज वे खुद digital हिंदी लिखना सीख रहे हैं, सिर्फ हिंदी ही नहीं समस्त भारतीय क्षेत्रीय भाषाओँ का प्रयोग भी chatting और comments में होने लगा है| अब ये बात कहना अतिउत्साह तो नहीं होगा कि हिंदी के posts  और comments पढ़ने में लोगों की रूचि अब अंग्रेजी के posts /comments से अधिक बढ़ रही है|
   एक सबसे महत्वपूर्ण और हर्षवर्धक तथ्य ये है जो हिंदी कल तक ३०+ के आयुवर्ग पर निर्भर थी उसकी लोकप्रियता अब १६-१७ साल के किशोरों में भी बढ़ती जा रही है, इससे बेहतर बात हिंदी के लिए शायद और कोई नहीं होगी कि जिस पीढ़ी को लेकर हम संशय में थे कि यह विरासत को संभालेगी या नहीं, वही पीढ़ी उसे सरूचि अपना रही है| और यह पूरा श्रेय न तो किसी सरकारी नीति को जाता और न ही किसी सामाजिक संस्था के प्रयास को, यह पूरा श्रेय सिर्फ facebook  पे सक्रिय उन तमाम हिंदी साधकों का है जिन्होंने किसी भी स्थिति में अपनी मातृभाषा से मुंह नहीं मोड़ा| यहाँ बात सिर्फ अपनी तारीफ़ करने की नहीं है, बात यह है कि हमने सच में ये किया है, हमने हिंदी लिखने तो एक नैतिक प्रतिस्पर्धा बनाया , और लोग उसमें जुड़े हैं और..जुड़ रहे हैं|
    अब यदि कोई कभी पूछे कि फेसबुक पे बैठ के क्या कर लिया? तो गर्व से कह सकते हैं कि हिंदी को बचाया! वाकई फेसबुक ने ही बदला है हिंदी की स्थिति को, सिर्फ हिंदी ही नहीं facebook  ने तो देश की राजनीति को भी बदला  है | ;)

पुष्यमित्र उपाध्याय
,एटा -उत्तर प्रदेश