Friday, August 26, 2011

अन्ना पर सवाल क्यों?

मुझे इस बात पर बड़ा ही अफ़सोस है कि अन्ना की मुहिम एक बड़ा जनआन्दोलन बनने के बाद भी कुछ "अरुंधती रायों" की भटकाववादी मानसिकता से पिंड नहीं छूट पाया, उनके विचार ये हैं कि ये आन्दोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ होने बजाय, महिला एवं दलित आरक्षण और सशक्तिकरण के लिए होता तो अन्ना आदरणीय होते, ये कहने को तो घोर देश चिन्तक हैं किन्तु सच में यह इनके मानसिक दिवालियापन को ही दर्शाता है!
  भ्रष्टाचार के खिलाफ और राष्ट्रवादी मुहिम इन्हें कभी अच्छी लगती ही नहीं है, पता नहीं क्यों? ये सभी वे मौका परस्त लोग हैं जो जबरन कारण निकाल कर, समाज का विभक्तिकरण करने पे तुले रहते हैं! अगर किसी समय पूरा देश एक झंडे के नीचे आ जाए तो ये बातें इनसे हज़म ही नहीं होती, तो फिर अपनी तुच्छ विचारधारा को दिखाने में लग जाते हैं और कभी महिला-पुरुष तो कभी दलित-सवर्ण तो कभी हिन्दू-मुसलमान के नाम पर भड़काना शुरू कर देते हैं|
  बड़े ही घटिया विचार हैं इनके, और बड़े ही घटिया लोग हैं ये, इनकी घटिया मानसिकता का एक उदाहरण है कि फेसबुक के किसी कोने में कुछ लोगों का समूह सक्रिय है, जो दलित वर्ग को बता रहे हैं कि अगर अन्ना की बात मानी गयी तो भीम राव अम्बेडकर के बनाये संविधान का अपमान हो जायेगा! अब इन्हें कौन समझाए संविधान का अपमान असल में कौन कर रहा है? और अगर ऐसा कुछ है भी तो ये भी तो जानो कि ये वही संसद है जो अंग्रेजों ने बनवाई थी, जहां श्री भगत जी ने रोष व्यक्त किया था, और ये वही संविधान है जो इंग्लॅण्ड, आस्ट्रेलिया और अमेरिका के संविधानों से प्रेरित होकर बनाया गया और थोप दिया गया भारतीयों पर| मैं बाबा साहब की खिलाफत में नहीं हूँ पर हाँ उस लिखी हुई पोथा-पत्री के खिलाफ हूँ जो राष्ट्र में स्थिरता ना ला सके, संस्कृति ना बचा सके, उपेक्षित को सहारा ना दे सके, शोषितों को न्याय ना दे सके, भ्रष्टाचार को रोक ना सके, समाज में समता ना ला सके, समग्र विकास ना दे सके और हाँ संस्कृति और राष्ट्रवाद के खिलाफ बोलने वाले ऐसे राष्ट्रद्रोहियों के सर ना कुचल सके...
                     जय भारत! जय माँ भारती!!
                                               -पुष्यमित्र उपाध्याय 'आदित्य'

Friday, July 1, 2011

सांस्कृतिक प्रदूषण

       एक खबर आई थी पिछले दिनों कि महाराष्ट्र सरकार ने २५ वर्ष से कम आयु वाले लोगों को मदिरा सेवन से वंचित कर दिया है, सरकार के इस फैसले पर एक फ़िल्मी लड़के ने कड़ी आपत्ति व्यक्त की थी, यहाँ तक कि वह इसे न्यायलय तक ले जाने को तत्पर है, इस कारण के साथ कि "यह युवाओं की स्वतंत्रता का हनन है" बड़े आश्चर्य की बात है कि उसके लिए ये अन्याय है, और वह न्याय पाना चाहता है| पर उससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात ये है कि इस देश में ऐसी व्यवस्था है भी कि इनकी सुनी जाए..देश के न्यायलय इस पीड़ित की पीड़ा को सुनने के लिए अपना समय देंगे ये आश्चर्य है| आश्चर्य तब ना होता जब उस कुसांस्कृतिक लड़के की
पीठ पर कम से कम हजार कोड़े लगाये जाते, और अपनी लोकप्रियता के दुरुपयोग तथा समाज को गुमराह कर भड़काने का मुकदमा चलाया जाता और टांग दिया जाता! नंगा नाच बना रखा है देश में कि जो आता है हमारी संस्कृति को ही मिटाने चला अता है, एक फैसला जैसे तैसे ये नेता सही ले रहे हैं उस पर भी ऐसी धूर्त आपत्ति? और तमाम कथित-कट्टरवादी खामोश बैठे हैं? नशे को स्वतंत्रता बताता है ये नीचबुद्धि लड़का?
           वह कहता है कि ये कानून समाज के लिए खतरा है! और उसके समर्थन में तमाम अंधे बने युवा पीछे पीछे चल रहे हैं, 'यूथ आइकन' बताते हैं इन दो कौड़ी के लोगो को| भगत सिंह, आजाद, राजगुरु, नेता जी आदि यूथ आइकन क्यों नहीं हैं? जो अपनी जवानी भी पूरी ना जी सके, शहीद हो गये सिर्फ इन लोगों के लिए कि अब ये संभालेंगे भारत माँ को...उनकी शहादत, उनकी कुर्बानी याद नहीं आती? बस इस पाखंडी के मिथ्या बोल याद रहते हैं! कल परसों का आया लड़का ऐसे बयान देने लगा और मीडिया उसे लोकप्रियता दे रही है? कोई सच्चा भारतीय होता तो वही उसका दम निकल देता, सुनकर जिस तरह की वो बातें कर रहा है|
            अब कुछ रहने दोगे इस देश का बाकी या नहीं, ये तो बयान दे कर निकल जायेगा, पर छाप हमारी पीढी पर पड़ती है! बच्चे और युवा बहुत तेजी से बिगड़ रहे हैं,और इन सब का कारण ऐसे ही लोग हैं तो इन्हें फांसी क्यों ना दी जाए, जो कि एक अच्छी पहल चलने पर रूकावट और अपनी धूर्त सोच लिए सामने आ जाते हैं..१४ वर्ष की उम्र तक आते आते किशोर जिन अवसादों का शिकार हो जाते हैं उनके जिम्मेदार भी ऐसे ही लोग हैं| मैं तो मदिरा उत्पादन पर ही प्रश्न रखता हूँ आखिर ये इतनी सुलभता से उपलब्ध क्यों करा दी जाती है? मैं जानता हूँ कि आज मेरे शब्द सीमा से अधिक कटु हैं, पर सच में अब ये देखा नही जाता खून खौल उठता है भीतर से!
            बात सिर्फ इस अधर्मी लड़के की ही नहीं है, बात उस स्त्री की भी है जो दिन प्रतिदिन अश्लील होती जा रही है, मनोरंजन के मंचों से नारी की जो छवि वह प्रस्तुत करती है उसका कुप्रभाव परिवारों के सम्मान, शील, और आचरण पर पड़ता है, और आपत्ति प्रकट किये जाने पर वह सेंसर बोर्ड को समाज का विष बताती है!
    बात उन लेखकों की भी है जो ऐसी पटकथाएं लिखते हैं|
    बात उन निर्देशकों की भी है जो इस अश्लील सोच साकार रूप देते हैं!
    बात उन निर्माताओं की भी है जो अपना धन लगते हैं इस सांस्कृतिक प्रदूषण को बदने के लिए|
              यहाँ सेंसर बोर्ड की भूमिका पर भी संदेह है, प्रश्न मनोरंजन कानून पर भी है ..आखिर होता क्या है ये 'A' प्रमाण पत्र या 'U' प्रमाण पत्र? फिल्म पहुँच तो रही ही है ना दर्शकों में?  दूषित तो कर ही रही है ना समाज को?  उसे १४ साल का बच्चा भी देख रहा है और २४ साल का युवा भी..असर छोटी उम्र पर ज्यादा पड़ता है! बचपन बिगड़ रहा है बहुत ही तेजी से और ये ज्यादा खतरनाक है! ये सब किशोरियों के पहनावे, बोलचाल में द्विअर्थी और अश्लील शब्दों के प्रयोग, मानसिक भटकाव( जिसे वे freedom कहती हैं) और भयानक चारित्रिक हानि के जिम्मेदार ये सब ही हैं! आज इन लोगो के कारण एक सभ्य परिवार एक साथ बैठ कर टेलीविजन नहीं देख सकता! गीतों के नाम पर परोसी जा रही अश्लीलता किसी से छिपी नही है फिर कोई आपत्ति व्यक्त नहीं करता? 
          हाल ही में आया गीत साफ़ तौर पर गंदे शब्दों से भरा है, ये कौन से गीतकार हैं समझ नहीं आता, और संयोग से ये गीत भी उसी लड़के पर फिल्माया गया है जिसके बारे में मैंने ऊपर उल्लेख किया है, इन सब को खड़ा करके गोली मार देनी चाहिए!
         आतंकवाद तो हमारे हाथ में है नहीं पर संस्कृति और सभ्यता तो हाथ में हैं ना? ये हमें ही बचानी होंगी! वरना वो दिन दूर नहीं जब पूजा पाठ, धर्म कर्म और ईश्वर में आस्था रखने वाला 'पापी' कहलायेगा, और समाज से पृथक कर दिया जायेगा..संस्कृति के अर्थ बदल जायेंगे फूहड़ता और नग्नता ना स्वीकारने वाला व्यक्ति 'कुसांस्कृतिक' माना जायेगा..ये हास्य नहीं नहीं है, वर्तमान परिस्थितियां यही इंगित कर रहीं हैं कि बचा लो संस्कृति को, वर्ना राष्ट्र नही बचेगा...
         इन सब बातों से शासन अनभिज्ञ नहीं है, फिर भी उदासीन रवैया रखना, यही दर्शाता है कि बड़ी भूमिका शासन की भी है, या फिर मोटी रकम ले कर चुप बैठे हुए हैं सब....................जय भारत!
 -पुष्यमित्र उपाध्याय

Saturday, March 19, 2011

शुभ होली

आप सभी को होली की हार्दिक मंगलकामनाएं...खूब रंग खेलिए, उलास मनाइए, नशे-जुए एवं कुसांस्कृतिक  गतिविधियों से परहेज़ रखें, आपसी रिश्तों की, भावनाओं की मर्यादा बनाये रखते हुए पर्व का आनंद लें, मर्यादित आचरण बनाये रखें, जिससे किसी भी मन के लिए ये त्यौहार कुंठा का कारण ना बने..और कुछ ऐसा करें की हमेशा ये पर्व अपने अच्छी यादों के लिए याद किया जाए, त्योहारों कि गरिमा बनाये रखें, त्योहारों कि इज्ज़त बनाये रखें...ये हमारी धरोहर हैं..और शान भी...
शुभ होली!
-पुष्यमित्र उपाध्याय

Friday, March 18, 2011

ऐसी तबाही फिर ना आये......

जापान में आई सुनामी प्रकृति द्वारा दी गयी एक चेतावनी मात्र है भारत एवं अन्य राष्ट्रों के लिए, कि विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन बंद कर दो अन्यथा विज्ञान और तकनीकी विकास का जो डंका पीट रहे हो वो मानव जाति के विनाश का कारण ना बन जाए, मुझे पता है जो मैं लिख रहा हूँ वो सहजता से स्वीकार करने वाली बात नही है, परन्तु भारत में आई सुनामी, अमरीका में आया कैटरीना चक्रवात, और अभी निरंतर ख़त्म होता जापान, समय-समय पर प्रकृति द्वारा दी गयी चेतावनियों की ओर ही इशारा कर रहे हैं|
       आगे बड़ने कि दौड़ लगा रखी है, जब हम ही नही रहेंगे तो विकास का क्या करेंगे, विज्ञान ने बहुत उन्नति की, बहुत कुछ दिया हमें, सहर्ष आभार! पर जितना हो गया बस करो उतना काफी है! जीवन से बड़ा कुछ नही होता, अब वक़्त है कि थोडा सा रुक जाएँ हम, और अपनी नैतिकता एवं सांस्कृतिक विकास के बारे में सोचें, ये भी हो सकता है कि ये सारी बातें मृत्यु का डर मुझसे लिखवा रहा हो, परन्तु ये बात बिलकुल सत्य है कि भारत चाहे कितना भी तकनीकी विकास के पीछे भागे, पर भारत की असली शक्ति है: "परिवार, संस्कार, संस्कृति और सभ्यता" और जिस दिन ये सब भारत ने खो दीं, उस दिन के बाद कुछ ना बचेगा कुछ और खोने को| ये जो आंधियां चल रहीं हैं पश्चिम की ओर से, इन्होने सबसे ज्यादा हमारी इन्ही शक्तियों को कमज़ोर किया है, समय है इन्हें बचा लेने का|
    आज तक मनुष्य खुद को संसार का स्वामी मानता रहा है, और उसी कथित स्वामित्व का लाभ लेकर प्रकृति पे निरंतर अत्याचार करता रहा, परन्तु प्रकृति ये फिर से स्पष्ट कर देना चाहती है की स्वामी अभी भी वही है, इस घटना से उसने मानव को मर्यादित रहने का निर्देश दिया है, और यदि उसे परतंत्र करने के प्रयत्न बंद नही हुए तो ऐसे विद्रोह होते ही रहेंगे, जिनकी निरंतरता संपूर्ण मानव जाति के स्थायित्व को हिला देने वाली होगी और आश्चर्य नही कि कही हम आखिरी पीढ़ी हों??????
      और यदि कोई मेरी इन बातों को बिना प्रमाणित या 'अन्धविश्वास' कहते हैं तो उनसे निवेदन है कि जीवित रहने दो अब हमें, "कुछ की गलतियाँ भुगतने के लिए हम नही हैं!"
                             "ईश्वर दया करे उन लोगों पर जो प्रभावित हुए हैं इस कहर से...."
जीता रहे हिंद! जीता रहे भारत!
                                                                                  -पुष्यमित्र उपाध्याय

Monday, February 28, 2011

प्यार है वो.....

प्यार है वो,
जो हार कर भी जीत का मज़ा लेता है,
प्यार है वो ,
आग से पानी मांग लेता है,
दर्द से चाहता है कि सुकून दे,
प्यार है वो,
जो जितना किया जाए कम लगता है,
प्यार है वो,
जो हर पल,हर दम लगता है,
प्यार है वो,
जो कभी बोझ नही लगता,
प्यार है वो,
जो शक करता है,
मगर यकीं कभी नही करता,
प्यार है वो,
जिसमें उम्मीदें टूट जातीं हैं,
पर कभी ख़त्म नही होतीं..........

तुझसे रूठने का जब भी ख्याल करता हूँ...............

कभी खुद से मैं ये भी सवाल करता हूँ ,
क्यूँ आखिर मैं अपना ये हाल करता हूँ?

नसीब रूठ जाता है मेरा मुझसे यूँ कभी,
तुझसे रूठने का जब भी  खयाल  करता हूँ|
उनके लिए झगडे पालना, शौक है मेरा,
और वो कहते हैं कि मैं बवाल करता हूँ |

गिर के खुद ही इश्क में मशहूर हो गया,
लोग भी कहते हैं  "मैं कमाल करता हूँ"|

..............-पुष्यमित्र उपाध्याय

Saturday, February 26, 2011

मेरा स्कूल

अनंत दूरी पर खड़ीं हैं,
सभी खुशियाँ मेरी,
ज्यों,
"स्थवः"
के स्वर पर रुकीं हुई सी...
मैं मुड़ता हूँ बरबस...
बैचैनी में बार-बार....
पर उन्हें वहां से हिलने को,
मना हो जैसे..
वे आज भी उतने ही अनुशासित हैं,
जितना 'मैं',
कभी हो न पाया...
एक बड़ा परिसर वो...और गूंजता एक स्वर..."वन्दे...........मातरम"
कुछ चेहरे तुम लोगों के शैतानी भरे..मगर बहुत प्यारे,
धूल के गुबार के पार तालाब के किनारे खड़े एक पेड़ मैं जा फंसा
मेरा 'बचपन'...."मेरा स्कूल": क्या करूँ भूल नही पता हूँ यार!!!!!!!!!!!!
-पुष्यमित्र उपाध्याय

हम भी किसी को बहका रहे हैं...............

पूरा मज़मा खिलाफत में उठ सा गया है, मेरे आगोश में वो क्या आ रहे हैं,
खफा हो रहीं खुद मेरी महफ़िलें हीं, मोहब्बत में आकर जो हम गा रहे हैं |
कैसे समझाएं हम उनकी नादानियों को ,जब खता हमने कोई की ही नहीं है
पहले हम बहकते थे कोई नाम लेकर, आज हम भी किसी को बहका रहे हैं|
                                                                 -पुष्यमित्र उपाध्याय

Friday, February 25, 2011

तुम जब याद आते हो...

भुलाने को तो यूं हर रोज़, तुमको भूलता हूँ मैं,
मगर जब याद आते हो..........बहुत तुम याद आते हो,
इन आँखों में दुनिया को, नहीं अब ढूंढता हूँ मैं,
मगर जब याद आते हो..........बहुत तुम याद आते हो,
तुम्हें दिल से मिटाने को,खुद ही से रूठता हूँ मैं,
मगर जब याद आते हो..........बहुत तुम याद आते हो,
सुकूं की नींद पाने को, रात भर जूझता हूँ मैं,
मगर जब याद आते हो..........बहुत तुम याद आते हो,
कोशिशें लाख मैंने कीं , तरीके पूछता हूँ मैं,
मगर जब याद आते हो..........बहुत तुम याद आते हो,
                                                      -पुष्यमित्र उपाध्याय

Friday, February 4, 2011

दादा आप याद आओगे.....

सौरव  गांगुली जैसे प्रतिबद्ध खिलाड़ी के साथ किया गया ऐसा व्यव्हार काफी शर्मनाक है भारतीय क्रिकेट के लिए....अब मुझे इस खेल और ..इससे सम्बंधित लोगों  में किसी प्रकार का विश्वास नहीं रहा कि भारत की ओर से सर्वाधिक शतक बनाने वाला दूसरा बल्लेबाज़, वर्ल्डकप  में भारत की ओर से सर्वाधिक मैच जीतने वाला कैप्टेन, और वो खिलाडी जिसने सारी दुनिया के सामने अपने देश के क्रिकेट को सम्मान और स्वाभिमान के साथ प्रस्तुत किया.... का अपमान  कर  बाहर निकला जाता है....इस सब से जुड़े लोगों का भविष्य अच्छा नहीं है...और मैं कामना करता हूँ कि ये इस खेल की परिणिति की शुरुआत हो...

Thursday, February 3, 2011

वन्दे मातरम!

चाँद आकाश में निकला हुआ है
है रात आधी बीत गयी,
सन्नाटा है कुछ घरों में, नींद का;
कुछ घरों में बेउम्मीद का...
एक बड़ा सरकारी परिसर,
खुलते हुए तालों की आवाजें
कुछ सांसें, कुछ चालों की आवाजें,
खून से लिपटा चेहरा
चार कदमों के बीच लड़खड़ाते दो कदम,
साथियों की पुकारें, गर्व ज्यादा आंसू कम,
और इन सब को आखिरी विदा देते दो हाथ,
ऊँचे तख़्त पे सजे हैं इंतज़ाम ,
रस्सी एक बाँध रखी है,
एक गाथा मिटाने को,
फिर गूंजता है स्वर......."वन्दे मातरम"
दो आँखें अभी भी आस लगाये देख रहीं हैं
अपने तिरंगे को, सुकून से लहराते हुए,
जिसके लिए खुद सुकून के अर्थ मिटा दिए,
फिर उठते हैं, खयालों के घेरे,
बीते सब दिन अँधेरे,
सारी कोशिश, सारी उम्मीदें
फिर वो रस्सी डाल देता है  गले में, कोई जो पहले अपना ही था,
फिर गूंजता है स्वर.......वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!.....वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!.....वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!.....वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!.....वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!.....वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!......वन्दे मातरम!

Wednesday, January 26, 2011

जिन्दगी

जाने कहाँ अफसोस में रही जिन्दगी,
जिन्दगी भर रेत सी बही जिन्दगी|

दीयों की तलाश में,अंधेरो के पास में,
ना जाने कितने बोझ सही जिन्दगी|

बिता दी हर साँझ एक सूरज के विरह में,
लोग भी कहते हैं कि ये है नहीं जिन्दगी|

इतने क़त्ल देख लिए हैं अपने अरमानों के,
कभी बयां, तो कभी चुप रही जिन्दगी |

किसी ने कहा बाज़ार में बिकता है ईमान भी अब,
हमने पूछा मिलती भी है क्या कहीं जिन्दगी|

मोहब्बत के सौदे में भाव लगा दिए अपने,
बड़ी सस्ती है शायद यहीं जिन्दगी

सोचा कि ख़त्म करें अब इस वहशत के सफ़र को,
पर हाथ में उम्मीद लिए आ गयी फिर वही जिन्दगी|

Tuesday, January 25, 2011

मैं गणतंत्र नही गाऊंगा

जब तक ना अवसर में समता|
जब तक ना शासन में क्षमता|
जब तक ना जन-जन में राष्ट्र पुकार है,
इस दिन को शुभ कहना ही बेकार है|

स्वप्न बाँध कर कई बंधा था संविधान इस भारत का,
टूट चुका है रज-रज में अभिमान मेरे इस भारत का|
जब तक हों सत्ता में लुटेरे|
जब तक हैं न्याय अँधेरे|
जब तक ना अन्यायी का प्रतिकार है,
इस दिन को शुभ कहना ही बेकार है|

भारत माँ के सच्चे रखवाले भुला दिए,
फूहड़ अभिनय और नर्तक सब नायक बना दिए|
जब तक ना सम्मान तिरंगी|
जब तक है चिंतन में फिरंगी|
जब तक ना निज-भाषा कि हुंकार है,
इस दिन को शुभ कहना ही बेकार है.......

Monday, January 24, 2011

आ दिल अब लौट चलें किनारे कि ओर...

लगता नही है कहीं, इस समंदर का कोई छोर;
आ दिल अब लौट चलें किनारे कि ओर...

बस गहराइयाँ ही हैं यहाँ डूब जाने के लिए,
कोई लहर ना आई साथ निभाने के लिए|
हिम्मतें टूटीं जब भवंर में तो जाना हमने
सागर होते ही हैं बस नहाने के लिए||

हो गयी रात थम गया शोर.....
आ दिल अब लौट चलें किनारे कि ओर...

Thursday, January 20, 2011

काला-धन

पिछले दिनों हमारे माननीय कृषि मंत्री श्री शरद पवार जी  ने एक कथन दे डाला कि "सब्जियों की कीमतें क्यों बढ़ रहीं हैं मुझे नहीं पता"| एक दिन बीता ही था कि, प्रधानमंत्री जी का बयान था कि "महंगाई पर बोलने के लिए मैं कोई ज्योतिषी नही हूँ" साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि "काले-धन सम्बन्धी मसले का हल तुरंत नहीं निकाला जा सकता, क्यों कि वे एक अनूठे करार से जुड़े होने के कारण वे उन नामों की गोपनीयता को बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं"| इन वक्तव्यों से दो ही निष्कर्ष सामने आते हैं कि -या तो भारतीय जनता का नेतृत्व में स्थायित्व लाने का निर्णय गलत था; -या फिर वर्तमान शासन, राष्ट्र की समस्याओं से बचना ही चाहता है!
    इन सभी पदारूढ़ों के पास समाधानों के लिए स्वयं के कोई विचार नहीं हैं; लिए गये सभी निर्णय बस विपक्ष के विरोध और जनता के दवाब से बचने के लिए की गयी औपचारिकता मात्र है| इन मुद्दों पर सत्तारूढ़ों के वक्तव्य और विचार कभी भी गंभीर और प्रभावी नही लगे, ना ही मंत्रियों में इन मुद्दों पर चिंतन देखा गया; वे आपातकालीन बैठकों और चिंतन-सभाओं में भी प्रसन्न मुद्रा में अभिवादन लेते हुए जाते हैं| ऐसा प्रतीत होता है कि शासन पे दवाब ना बने तो जन-समस्याओं के प्रति वे उदासीन रवैया ही रखेंगे, और दवाब बनने की स्थिति में बस बचकाने और गैर-जिम्मेदाराना बयान देना ही निर्वहन समझने लगे हैं| ये सब बिलकुल ऐसे है जैसे गाज पड़ने पर सर बचा लेना| सभी नीतियाँ बचावों के लिए ही मालूम प्रतीत होतीं हैं|
    सिर्फ औद्योगीकरण और मशीनी-विकास ही देश के लिए विकास नहीं कहलाता| जन-समस्याओं का निबटारा भी अधिक ज़रूरी है बजाय बड़े सौदेबाजी के; व्यापर तथा विदेश नीतियां द्वितीयक अंग हैं लक्ष्य नहीं! यदि लक्ष्य नागरिक उत्थान है तो उस दशा में अन्य गतिविधियों को अल्पकालीन विराम देने में बड़ा नुकसान ना होगा| जब सब्जियों में मूल्यवृद्धि के बारे में आपका ज्ञान शून्य है तो क्या अधिकार है आपको पद पर यथावत बने रहने का? कैसे आपका मन लग जाता है वर्ल्ड कप के अनावरण समारोहों में? आपकी जनता दुखी है आपको नींद कैसे आ जाती है जबकि इतनी जिम्मेदारियां आपका इंतज़ार कर रहीं हैं? आप अपनी असफलताओं की जवाबदेही और बचावों के लिए ही वहां नही हैं, आपकी अपनी जिम्मेदारियां भी होनी चाहिए और अपने मजबूत प्रयास भी| और यदि आपके पास ऐसा कुछ नही है तो एक शर्म तो होनी ही चाहिए कि "मुझे नहीं पता की मैं मंत्री क्यों हूँ?" शिवखेडा जी कहते हैं की यदि आप समस्या के समाधान का हिस्सा नही हैं तो आप खुद समस्या हैं|
    उधर आठ साल से लोकतंत्र के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति का बयान कि "मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ"; यदि इतने अनुभव और अर्थशास्त्र में प्रकांड होने के बाद भी आप जन-समस्याओं के निराकरण खोजने को ज्योतिषवाद समझते हैं, तो आप में विश्वास रखने वाले अन्धविश्वासी ही कहलायेंगे! एक और मुद्दा काफी गंभीर है; सरकार ने कहा कि "वे करार से जुड़े होने के कारण भ्रष्टाचारियों का नाम नहीं बता सकते"| ऐसा कौन सा करार आपने कर डाला जो देश-हित और जनता से ऊपर है? आप इस देश के सिर्फ मंत्री हैं मालिक नहीं! ऐसी कौन सी भीष्म प्रतिज्ञा आपने ले ली जो राष्ट्र की संपत्ति के दोहन का अधिकार आपको दे देती है? इस देश की प्राकृतिक संपदा, आर्थिक संपदा के उचित प्रयोग व समान अवसर प्रदान करने हेतु सरकार का गठन किया जाता है; इसका अर्थ ये कतई नहीं हैं कि आप में से कुछ उस संपदा का संग्रह कर लें! लोकतंत्र के अंगमात्र हैं आप सर्वेसर्वा नही|
     इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का सख्त रुख सर्वथा उचित ही है! यह बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था| जर्मन बैंकों में जमा धन केवल टैक्स-चोरी नही है बल्कि यह भारतीय संपत्ति की चोरी करने जैसा है, और जो भी इस चोरी में लिप्त हैं वे राष्ट्र-द्रोही ही हैं,"अपराधी"! जब बिना यात्रा-कर दिए यात्रा करने वाले आम नागरिक को छः माह की सजा का प्रावधान है, और पकडे जाने पर त्वरित सज़ा दे दी जाती है; आयकर में गड़बड़ी करने वालों, विद्युत्-कर से छेड़छाड़ वाले मामलों में भी त्वरिक कार्यवाही का आदेश है; तो फिर इतने संगीन अपराधियों का साथ सरकार क्यों दे रही है? अब तो छिपाने वालों को भी संलिप्तता के संशय में ले लेना चाहिए! इस सम्बन्ध में बचाव की हर याचिका खारिज कर देनी चाहिए! और अधिक समय ना देते हुए शीघ्र ही कार्यवाही शुरू की जानी चाहिए! उस करार के बहाने में सिर्फ २६ लोगों के हित में ही क्यों सोचा गया? क्या सरकार के वे ज्यादा हितैषी हैं? जब ये करार किया गया था, तो क्या इसके दुरुप्रयोग के बारे में नही सोचा गया? इस करार में किस स्तर के लोगों को धन जमा करने की अनुमति दी गयी थी? क्या ये करार हर खाता धारक की गोपनीयता के सन्दर्भ में था?यदि हाँ तो क्यों? जब बैंको से करार था अर्थात हर गतिविधि पर नज़र थी तो जब इतनी अधिक राशि का धन स्थानांतरित हो रहा था तब सरकार द्वारा कोई हस्तक्षेप क्यों नही हुआ? क्या इस प्रकरण में शासन कि भूमिका पर प्रश्न उठाया जाना गलत होगा?
    इतना पैसा विदेशों में पड़ा हुआ है, इधर लोग भूखे मर रहे हैं, किसान आत्म-हत्या कर रहे हैं, सडकों के गढ्ढे  गहराइयों में बदल गये हैं, बेरोज़गारी फ़ैल रही है, महंगाई बढ़ रही है, और वे कहते हैं कि हम अगली आम सभा में इन मुद्दों पर विचार करेंगे! अरे विचार तो आपके मनः मष्तिष्क में आते ही नही! एक बुज़ुर्ग जो गलती से साधारण किराया देकर शयन-यान में बैठ जाता है, तो उसे रेलवे उड़न-दस्ते के अधिकारी लात घूंसों से नियमों कि जानकारी देते हैं? और एक तरफ देश के इतने बड़े धन को चुरा कर शयन कर रहे लोगों को गोपनीयता प्रदान की जा रही है?
इनके बचाव पक्ष में नियुक्त होने वाले वकीलों को भी राष्ट्र-द्रोही करार दे देना चाहिए|
      ऐसा कोई हक हमने आप को नही दे दिया जो आप निरंतर हमारे जीवन और देश की दुर्दशा करते जाएँ! आम लोगों के हित का ध्यान आपमें क्यों नही है? यदि आप सिर्फ चिंतन करना जानते हैं, तो अपने पद पर होने की वजह का भी चिंतन करें, अपने भारतीय होने पर भी चिंतन करें! एक पशु भी जिस घर का खाता है उसकी रखवाली तो करता है; उस घर से मिली रोटी चुरा कर दूसरो के घर में इकठ्ठा नही करता! ये आवाज़ बुलंद होनी चाहिए; सवाल निरंतर उठने चाहिए कि एक राष्ट्रवादी बयान को अपराध करार देने वाले खुद चोरी करते रहें, ये अधिकार उन्हें कहाँ से मिल गया? वो धन इस देश का है उन २६ नामों का नही! ये मुद्दा बड़ी देर से उठा है, सरकारी नीतियां इसे दबा ही देंगी! ऐसे में पूरे राष्ट्र से आह्वान है कि इसे दबाने ना दिया जाए! प्रश्न यूँ ही उठने चाहिए क्यों कि यदि अभी कोई सख्त कदम ना लिया गया तो बाकी बची प्राकृतिक संपदा को भी ये लोग बेच कर विदेशों में जमा कर देंगे........................जीता रहे हिंद! जीता रहे भारत!

Wednesday, January 19, 2011

"राष्ट्रवादिता"! समस्या या सबसे बड़ा समाधान????

कुछ लोगों की शिकायतें अक्सर तभी बढती हुई देखी जातीं हैं, जब भी यहाँ संस्कृति को बचाने की मुहिम शुरू की जाती है; कुछ लेखिकाएं  राष्ट्रवादिता को समस्या मानतीं है (सभी लेखिकाओं के लिए नहीं)| समझ ही नहीं आता कि ये राष्ट्रवादिता और संस्कृति को ही अपनी उपेक्षा का कारण क्यों ठहराते हैं? जबकि भारतीय संस्कृति पूरी तरह नारी शक्ति पर आधारित है| इनके विषयों में नारी मुक्ति के उपाय, राष्ट्रविरोधी बयान और संस्कृति की आलोचना ही अधिकतर देखने को मिल रही है| राष्ट्र चिंतन के लेखों में भी घुमा फिरा कर व्यक्तिगत या सामाजिक आलोचनाओं पर मुद्दे को ले आया जाता है| हालाँकि इस विलक्षण लेखन शक्ति का प्रयोग कुछ नए सुझावों, योजनाओं के लिए भी किया जा सकता है|
   राष्ट्रवादी होना बुरा नहीं है! मैं ऐसा सिर्फ एक राष्ट्रप्रेमी होने के नाते नही लिख रहा हूँ, बल्कि इसमें मुझे तर्क भी ठीक ही लगते हैं| "लोहे को काटने के लिए लोहा ही बनना पड़ता है!" जितनी तेज़ी से इस देश ने भौतिक उन्नति की है; उतनी ही तेज़ी से यहाँ के नागरिकों की नैतिक अवनति भी हुई है| अब यदि नैतिकता और राष्ट्रप्रेम को पुनः लाने के लिए, प्रयास कट्टर सीमा तक पहुँच रहे हैं, तो इसमें इतना बवाल मचाने वाली क्या बात है? आखिर इतनी तीव्र सांस्कृतिक हानि की भरपाई के प्रयास भी तीव्र ही होने चाहिए! जब भारत में देश-प्रेम, संस्कृति, सभ्यता जो कि  १८ सभ्यताओं के आक्रमण के उपरान्त भी अक्षुण रही, का हनन, हरण, और पाश्चात्यीकरण हो रहा था, तब इन्होने विरोधी स्वर नही उठाये? क्यों कि ये सब पाश्चात्य कों अपनी स्वतंत्रता का मसीहा समझने लगे हैं, जबकि यही इस राष्ट्र के पतन का कारण है! फिर चाहे वो "आर्थिक पतन" हो या "आध्यात्मिक पतन" या "सामाजिक पतन"|
      कुछ लोग जाग रहे हैं पिछले कुछ समय से! भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर विमल जालन, पूर्व जस्टिस बी.एन.कृष्ण, जमशेद गोदरेज और अज़ीज़ प्रेमजी ने पत्र के माध्यम से, बाबा रामदेव ने शिविरों के माध्यम से, कवियों ने मंचों के माध्यम से अपनी बात रखी, जिसे जो तरीका ठीक लगा है, उसी से अभिव्यक्त किया अपने राष्ट्रप्रेमी विचारों को| परन्तु लक्ष्य एक ही है "राष्ट्रहित"! ये सब भी राष्ट्रवादी ही हैं| ऐसे में यदि एक वर्ग ऐसा भी आगे आया जिसे उपरोक्त प्रयास अपर्याप्त लगे, और अधिक तीव्रता से राष्ट्र-चेतना जगाने के प्रयास किये,तो इसमें चिंतन क्यों? अब इसे कट्टरवाद कहो या कुछ और! पर ये वैसा ही है, जैसे स्वाधीनता संग्राम में "गरम दल और नरम दल" की भूमिका थी|
लक्ष्य बस "भारत की स्वतंत्रता" ही था! तो क्या गलत जब कुछ नये खून वाले अपनी सभ्यता को बचाए रखने के लिए अतिवादी हो गये? क्यों इन तुच्छ विचारों वाले लेखकों की कलम तन जातीं हैं, जब बात हमारी संस्कृति की आने लगती है? क्यों हमारी तुलना पाकिस्तान से करने दी जाती है?
    भगत सिंह और नेताजी के तरीकों को भी गलत बताया गया था! माना आज़ादी उनके तरीकों से नही मिली, परन्तु सच तो यह है की आज़ादी मिली ही नही! "हम पहले अंग्रजों के गुलाम थे आज हम अंग्रेजी के गुलाम हैं"| "पहले एक कम्पनी हमारे देश को लूट रही थी आज हजारों कम्पनियाँ इस देश का खून चूस रहीं हैं" और साथ में विचारों को भी; हम उनके द्रष्टिकोण से दुनिया देख रहे हैं! पहले एक रानी हम पे राज़ करती थी,आज उस रानी की जबान राज़ कर रही है! यदि तरीके भगत सिंह और नेताजी के अपनाये गये होते तो अभी हम लोग राज़ कर रहे होते, ये गद्दार आवाजें फिर ना उठतीं, और ना उठता कोई पाकिस्तान हमसे कट्टरवादी तुलना करवाने के लिए..............