Saturday, February 26, 2011

मेरा स्कूल

अनंत दूरी पर खड़ीं हैं,
सभी खुशियाँ मेरी,
ज्यों,
"स्थवः"
के स्वर पर रुकीं हुई सी...
मैं मुड़ता हूँ बरबस...
बैचैनी में बार-बार....
पर उन्हें वहां से हिलने को,
मना हो जैसे..
वे आज भी उतने ही अनुशासित हैं,
जितना 'मैं',
कभी हो न पाया...
एक बड़ा परिसर वो...और गूंजता एक स्वर..."वन्दे...........मातरम"
कुछ चेहरे तुम लोगों के शैतानी भरे..मगर बहुत प्यारे,
धूल के गुबार के पार तालाब के किनारे खड़े एक पेड़ मैं जा फंसा
मेरा 'बचपन'...."मेरा स्कूल": क्या करूँ भूल नही पता हूँ यार!!!!!!!!!!!!
-पुष्यमित्र उपाध्याय

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