Friday, October 25, 2013

रागा के राग औऱ नमो की नमः

     राहुल गांधी निस्संदेह अब मात्र नेता नहीं रहे हैं, वे एक समस्या बन गये हैं| न सिर्फ अपनी ही पार्टी के लिए बल्कि अपनी पारिवारिक प्रतिष्ठा  के लिए भी| ऐसा लगता है कि नमो फीवर ने उन्हें इस तरह जकड़ा हुआ है कि वे क्या बोल रहे हैं; किस स्तर पर बोल रहे हैं; इसका उन्हें खुद ही ख्याल नहीं| कभी वे अपने ही प्रधानमंत्री का अपमान करते नज़र आते हैं तो कभी ऊटपटांग भाषण देते हुए| कुछ समय पहले तक खुद कांग्रेस  ही राहुल गांधी को नमो के विरुद्ध सीधे तौर पर उतारना नहीं चाहती थी| मगर लगता है या तो कांग्रेस में कोई प्रधानमंत्री मटीरिअल बचा ही नहीं है या फिर जो राहुल बोल/कर रहे हैं वही उनका स्वीकृत स्तर हो चुका है|
 हाल ही में दिए गये ISI वाले बयान से राहुल गांधी एक साथ कई प्रश्न खड़े कर गये, एक तरफ जहाँ उन्होंने देश के मुसलमानों की निष्ठा पर शंकात्मक प्रश्न लगाये वहीँ दूसरी ओर उन्होंने इस बात को हवा दे दी, कि उनकी सत्ता के दौरान देश की सबसे गोपनीय संस्थाओं में किस हद की लापरवाही पसर चुकी है| CBI की स्वतंत्रता पर पहले भी लोग प्रश्न उठाते रहे हैं| किन्तु अब मामला देश की ख़ुफ़िया एजेंसियों का है| सवाल जायज़ है कि देश की इंटेलिजेंस राहुल गांधी को किस आधार पर सूचना दे सकती है? और सूचना नहीं भी दी गयी है तो इस झूठ के ज़रिये वे मुसलमानों पर शक करके क्या सिद्ध करना चाहते हैं|
   हालांकि ये बात औऱ है कि उनकी पार्टी के लोग उनसे प्रश्न पूछने की हिम्मत न रखते हों, मगर अब विपक्ष के पास मौका भी है और माहौल भी| अब ये मौका किसी और ने नहीं बल्कि स्वयं राहुल ने उन्हें दिया है| राहुल के भाषणों से साफ़ है कि कांग्रेस के पास चुनाव प्रचार हेतु कोई ठोस माल है ही नहीं| कभी वे भावनात्मक कहानियों का सहारा लेते हैं, तो कभी वोटमंशा से पारित आधे अधूरे अधिकारों का बखान करते हैं| उनके पास एक शानदार इतिहास भले हो किन्तु उस इतिहास के थोथे होने की पोल उनका वर्तमान स्वयं खोल रहा है| राहुल गांधी उस तरह अपने प्रधानमंत्री होने की दावेदारी प्रस्तुत कर रहे हैं जिस तरह 1992 में विश्वकप जीतने वाले इमरान खान के पुत्र कहें कि मुझे आज चैम्पियन घोषित दिया जाए| विश्वकप हर निश्चित समयांतराल बाद होता है, और हर बार वही विजेता होता है जो विजेता होने की योग्यता रखता है| इतिहास के आधार पर वर्तमान के विजेता नहीं चुने जाते| राहुल को यह सिद्ध करना चाहिए कि वर्तमान में वे क्या हैं और भविष्य में क्या कर सकते हैं| इस मामले में वे नमो के आगे कहीं नहीं ठहरते, वे तो क्या किसी भी कांग्रेसी नेता का कद नमो के आगे बौना ही है| यह खुद कांग्रेस का किया-धरा है| वे राजपरिवार के अतिरिक्त किसी को प्रभाव में आने देना ही नही चाहते| सच तो यही है कि राहुल के अलावा कांग्रेस के पास कोई प्यादा भी नहीं बचा है जिसे प्रधानमंत्री पद हेतु प्रस्तावित किया जा सके|
         कांग्रेस के पास अब न तो मुद्दे बचे हैं और ना ही आधार जिन्हे लेकर वे जनता के बीच वोट मांग सकें| हिंदुओं को वे अपने इतिहास से लुभाना चाहते हैं, तो मुसलमानो को गुजरात 2002 का भय दिखाकर| किन्तु इस बार ये दांव भी उल्टा पड़ गया और ऊपर से भाजपा द्वारा बहुत समय बाद सिख दंगों की चर्चा छेड़ देना और भी मुश्किल भरा हो गया है| जिस सेकुलरिज्म के सहारे वे भाजपा को घेरना चाहते थे, अब उन्हें स्वयं ही इस पर जवाब तलाशना पड़ रहा है| सिर्फ यही मुद्दा नहीं कांग्रेस के परिवारवाद ने ही खुद भाजपा को अपनी किरकिरी के अवसर दिए हैं| अक्सर मिलने वाले कांग्रेसी कार्यकर्ताओं औऱ NSUI के सदस्यों की यही दुविधा है कि वे अब जनता के बीच जाकर किस बात का प्रस्तुतिकरण करें?
      एक तरफ राहुल गांधी हैं जो परम्पराओं के बहाने राजनीति करते हैं, वहीँ दूसरी तरफ मोदी हैं जो तमाम राजनीतिक रूढ़ियों को तोड़ते हुए आगे बढ़ रहे हैं| एक तरफ कांग्रेस है जिसके पास इतिहास के अलावा कोई ख़ास उपलब्धियां नहीं, दूसरी तरफ भाजपा है जिसके पास वाजपेई जैसा गौरवशाली इतिहास भी है औऱ नमो जैसा धुआंधार वर्तमान भी|  ऐसे में हो सकता है कि सोनिया को खुद मोर्चा सम्भालना पड़े, मगर इसके बाद राहुल गांधी का राजनीतिक भविष्य कहाँ जाएगा, ये तो वे ही जानें|

-पुष्यमित्र उपाध्याय
एटा

Monday, October 7, 2013

यूं ही पुराने पन्नों से....

यूं ही पुराने पन्नों से....
जब कभी बादल उतरने को होते हैं जमीं पे
और घिर आती है रंगत शाम की सी;
बगावत करते हैं कुछ लम्हे|
वो एक उजली सी शक्ल,
होती है हमराह,
किताबों जैसी बातें लिए/

गली से चौराहे तक के सफ़र में,
अक्सर हथेलियाँ टकरा जातीं है..
कोई कोशिश,
कोई साज़िश नहीं होती...
बस बगावत करते हैं कुछ लम्हे/

मगर लब चुप हो जाते हैं फिर
किताब चाहती तो बहुत कुछ है कहना
मगर आज नहीं/
किताब जानती भी है बहुत कुछ
मगर हर बात को बताना जरुरी तो नहीं/
और चौराहे तक बदल जाते हैं रास्ते/

यूं ही वरक दर वरक,
खत्म होतीं हैं सब बातें किताबों की|
कि अब सिर्फ खामोशियाँ चलती हैं,
उस गली से चौराहे तक|
न लम्हे बगावत करते हैं...
न हथेलियाँ टकराया करती हैं;
बहुत कुछ संभल गया है,
इस कहने समझने के फेर में/

किताबें बहुत कुछ कहती हैं
मगर सब कुछ नहीं |

       
         -पुष्यमित्र

Monday, August 26, 2013

खाद्य सुरक्षा से सत्ता सुरक्षा तक

बहुचर्चित और “सोनिया गाँधी सरकार” की महत्वाकांक्षी योजना| जितना लुभावना नाम उतने बड़े झमेलों के साथ ये बिल कागजों पर आधाअधूरा मगर इरादों में पूरी तरह तैयार है भारत की अर्थव्यवस्था और चुनाव दोनों में खलबली मचाने को| बिल के आवरण पृष्ठ पर गरीबों को सस्ता भोजन उपलब्ध होगा, और अंदरूनी पृष्ठों में कांग्रेस को वोट| जिस प्रकार सत्ताधीश इस बिल को पारित करवाने के लिए तत्पर दिख रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि देश की सत्ता समाज कल्याण की मंशा वाले लोग संभाले हुए हैं| किन्तु यदि गौर किया जाए तो ये वही अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह जी हैं जो पिछले कई वर्षों से आर्थिक सुधारों की “कडवी दवा महंगाई” भारतीय जनता को घोंट घोंट कर पिलाते आ रहे हैं| मगर चुनावी वर्ष के करीब आते ही वो “कडवी दवा” मीठी गोली में कैसे बदल गयी यह वाकई आश्चर्य का विषय है| वह भी उस समय जब देश की अर्थव्यवस्था गंभीर बीमारी की चपेट में है|
योजनानुसार 50% गरीब वर्ग इससे लाभान्वित होगा| शायद ये आंकडा कई वर्षों से ही चला आ रहा है| जबकि हर वर्ष गरीबी घटाने की बात डाक्टर साहब करते रहते हैं,, इसी वर्ष देश से १७ लाख गरीब रातों रात कम कर भी दिए गये हैं| गरीबी हट रही है कैसे घट रही है ये मत पूछिए| खैर मुद्दे पर आते हैं, इस योजना के अनुसार अधिकतम ३५ किलो सस्ता अनाज एक गरीब परिवार को प्रति माह उपलब्ध होगा| ३५ किलो के हिसाब से साल भर में ४ क्विंटल अनाज बिना मेहनत किये एक परिवार पा सकता है| ध्यान देने वाली बात है कि ४ क्विंटल अनाज बिना मेहनत किये यदि एक किसान को मिल जाएगा तो वह अपने खेतों में अनाज उत्पादन के लिए अधिक समय क्यों खपायेगा, वह क्यों नहीं अन्य विकल्पों के बारे में सोचेगा? सभी जानते हैं कि बड़े किसान पहले ही खेती से हाथ खींच कर अन्य काम धंधों की ओर अग्रसर हो चुके हैं| ऐसे में छोटे किसानों का भी खेतों से हट जाना, देश के अन्न उत्पादन पर गंभीर प्रभाव डाल सकता है| छोटे किसान मात्र अनाज के लिए खेती करते हैं, जो खपत से बाहर होता है उसे वे बेच देते हैं| अपने लायक अन्न मिल जाने के बाद वे खेती क्यों करेंगे? वे भी औरों की तरह शहर पलायन की ओर अग्रसर होने लगेंगे|
ऐसा ही उदाहरण हम मनरेगा योजना में भी देख चुके हैं, मनरेगा के कारण ही मजदूरी में अप्रत्याशित इजाफा हुआ, जिसका असर निर्माण के हद से ज्यादा महंगे होने में दिखा| अब बारी खेतिहर मजदूरों के महंगे होने की है, जो निश्चित रूप से अनाज की कीमतों को प्रभावित करेगी| ऐसे में सरकार सस्ता भोजन पचास करोड़ से अधिक लोगों को कहाँ से उपलब्ध कराएगी ये सोचने की बात है, जाहिर है कि बोझ फिर से मध्यम वर्ग पर डाल दिया जाएगा और करों में बार बार अप्रत्याशित वृद्धि देखने को मिलती रहेगी| इस योजना में जो भोजन का प्रवाह है वह “मध्यम वर्गीय थाली से उठाकर गरीब की थाली में डालने” का है| साफ़ शब्दों में कहें तो सरकार मध्यम वर्ग को अघोषित गरीब और गरीब को निठल्ला बनाने की पूरी तैयारी में है|
यह सब उस समय किया जा रहा है, जब रूपया रसातल में हैं, विदेशी क़र्ज़ पहाड़ सा होता जा रहा है और देश गरीबी की ओर अग्रसर है| अगर सरकार की मंशा वाकई गरीब कल्याण से जुडी होती तो ये बिल पिछले कुछ वर्षों में भी लाया जा सकता था जब हमारी अर्थव्यवस्था इसे झेलने लायक थी| प्रधानमंत्री जी ने वही समय क्यों चुना जब समय है कि समाज कल्याण को परे रखकर कड़े आर्थिक फैसले लिए जाते| मगर असल बात सिर्फ २०१४ के चुनावों की है| कांग्रेस जानती है कि मध्यम वर्ग पहले ही महंगाई वाली ‘कडवी दवा’ से रूठा हुआ है; खासकर घरेलू बाज़ारों से जुडा हुआ व्यापारी वर्ग! ऐसे में वह नहीं चाहती कि आधी आबादी से अधिक गरीब वोट किसी भी सूरत में हाथ से फिसल जाए|
गरीबी हटाने का कांग्रेसी फार्मूला सीधे आम आदमी की जेब में छेद करता हुआ जाता है| एक ओर ना तो किसानों को फसल की सही कीमत ही मिलती है, और ना ही दूसरी ओर आम आदमी को वाजिब दाम में रोटी| ऐसी योजनाओं से गरीबी नहीं घटती ये सभी जानते हैं| राज्यों के पास अन्न का रोना पहले से ही है| अन्न की आपूर्ति कम होने के साथ साथ ये योजनायें भी कुछ समय बाद बेअसर घोषित कर दी जायेंगी| जैसे पिछले कुछ वर्षों से पर्यावरण के नाम पर कई जन कल्याणकारी योजनायें केंद्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने बंद करवा दीं| मात्र चुनावी फायदे के लिए इतना बड़ी सब्सिडी का बोझ अर्थव्यवस्था पर डालने का जोखिम लिया जा रहा है| खुद प्रधानमंत्री ने १९९१ में वित्त मंत्री रहते हुए आर्थिक सुधारों के नाम पर कल्याणकारी योजनाओं से तौबा कर ली थी ऐसे में मात्र सत्ता सुरक्षा के लिए देश को कंगाली की तरफ धकेलने का जोखिम वे कैसे ले सकते हैं? यह काफी गंभीर है|
भोजन गारंटी जैसी योजनायें निश्चित ही जरूरी हैं, किन्तु उस समय नहीं जब देश की अर्थव्यवस्था औंधे मुंह पड़ी हो| महंगाई और बेरोज़गारी की वृद्धि निरंकुश हो| विदेशी क़र्ज़ बढ़ रहा हो और वैश्विक संकट का दौर हो|
वहीँ प्रमुख विपक्षी पार्टी भी इस बिल पर प्रत्यक्ष आपत्ति दिखाने की हिम्मत नहीं कर पा रही है! क्यों कि मुद्दा गरीबों के हितों से जुडा हुआ है| वह बिल को सिर्फ इस मंशा से रोकना चाहती है कि कांग्रेस इसका फायदा चुनाव में न उठा सके! किन्तु सही बात तो यह है कि चुनावी फायदे के लिए देश की अर्थव्यवस्था को इतने बड़े संकट में डालना क्या उचित है?
जिस तरीके से अनाज का बन्दर बाँट होगा उससे साफ़ है कि आने वाले समय में हम कम पैदावार की समस्या से भी जूझेंगे और महंगाई डायन पूरे ताव पर होगी! किसानो को फसल का सही मूल्य मिलना जरुरी है ना कि मुफ्त की रोटी| हाँ गरीबों को खाना मिलना जरुरी है मगर उन्हें निठल्ला बनाने की कीमत पर बिलकुल नहीं!
-पुष्यमित्र उपाध्याय
एटा

Monday, August 19, 2013

वक्त वक्त और मोदी भक्त



आज कल दो चीजें ही देखने को देश में रह गयीं हैं, एक तो मोदी भक्ति और दूसरी मोदीभक्ति से दुखी लोग! ये भारत के लिए नई बात नहीं है कि कोई नेता इस कदर सुर्ख़ियों में आ जाए और उसे लेकर गुटबाजी चरम पर हो| २०११ में अन्ना को लेकर भी देश में ऐसा ही माहौल बना था| लोग लोकपाल के लिए अनशन पर बैठे अन्ना की भक्ति में इस कदर डूबे हुए थे कि उन्हें अन्ना के आगे कोई रास्ता नहीं दिखाई देता था| वहीँ सत्ताधारी कांग्रेसी समर्थक अन्ना भक्ति से इतने क्षुब्ध थे कि न तो इसे पचा पा रहे थे, और ना ही भ्रष्टाचार विरोधी भावना को नकार पा रहे थे|
    हालांकि अपने निजी विचार से मैं कहना चाहता हूँ कि इन दोनों में से किसी की भी भक्ति बुरी नहीं थी| पिछले कुछ वर्षों से जब भ्रष्टाचार, महंगाई और अन्याय, उत्पीडन की अति जनता को अनुभव होने लगी तब उसे महसूस हुआ कि कोई तो नेता होना चाहिए जो इसका विरोध करे| जब रामदेव आगे आये तो तो उनके काले धन सम्बन्धी आन्दोलन को धर्म विशेष से जोड़कर दिखाया गया| और कह सकते हैं कि मीडिया द्वारा उनके आन्दोलन को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया गया| परिणाम स्वरुप उनके आन्दोलन से पूरा देश जुड़ नहीं पाया और एक सीमित भीड़ वाले आन्दोलन को सरकार द्वारा रातों रात बल पूर्वक दमन कर दिया गया| इस बात का गुस्सा लोगों में पनप ही रहा था कि अन्ना के लोकपाल आन्दोलन की शुरुआत हुई| रामदेव का जो आन्दोलन दमन किया गया था उससे उपजा क्रोध का लाभ अन्ना के आन्दोलन को मिला और अपेक्षा से भी अधिक मिला; साथ ही मीडिया का सहयोग भी भरपूर रहा, क्यों कि इस आन्दोलन के साथ किरण बेदी जैसी लोकप्रिय छवि भी जुडी हुई थीं| इस आन्दोलन के बाद से अन्ना भक्ति का जो दौर शुरू हुआ वो किसी से छिपा नहीं है| अन्ना के पास कोई भी विशेष राजनीतिक अनुभव ना होने के बाद भी, लोग उनको राजनीति का ध्रुव तारा मान बैठे थे| छोटी-छोटी बातें हो या विदेशी मुद्दे अन्ना की राय ही देश की राय बन जाती थी| अन्ना द्वारा सभी राजनीतिक पार्टियों को एक तरफ से भ्रष्ट घोषित कर देने के बाद, जनता का लोकतान्त्रिक संस्थाओं से भरोसा ही उठ चुका था| इन सब से अन्ना इतने उत्साहित थे, कि रामदेव के आन्दोलन पर सुहानुभूति जताते जताते उन्हें राजनीति में नौसिखिया तक घोषित कर डाला था| खैर ये बात अलग है कि रामदेव की राजनीति समझ पाना हर किसी के बस की बात नहीं| मगर वो बातें अलग हैं; बात ये है कि फिर इस आन्दोलन के साथ क्या हुआ| इस आन्दोलन का एक भीतरी कमज़ोर पक्ष था कि ये आन्दोलन पूरी तरह बस लोकपाल की जिद तक ही सीमित था| इसमें जनता की मूलभूत समस्याओं जैसे महंगाई,बेरोज़गारी, असुरक्षा, महिला उत्पीडन, उपेक्षा की कोई बात नहीं करता था| फिर भी लोग भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के साथ सिर्फ इसलिए जुड़े थे, कि कम से कम एक मुद्दे पर तो हमारा पक्ष रखा जा रहा है| नतीजा ये हुआ कि आन्दोलन बेअसर होने पर जनता के मन में अरुचि घर कर गयी, जिसका प्रभाव अन्ना के मुम्बई में हुए आन्दोलन में देखने को मिला| अन्ना की लोकप्रियता बढ़ चुकी थी इसका सीधा फायदा अरविन्द केजरीवाल ने उठाया और अन्ना की तरह अनशन कर के अन्ना की भीड़ को अपना समर्थक बनाने की कोशिश की| फिर जो भक्ति अन्ना की थी वही भक्ति केजरीवाल के लिए शुरू हो गयी| मगर केजरीवाल का अनशन बिना कारण और बिना समाधान के ख़त्म हो जाने से कई समर्थकों को धक्का लगा| और उन्हें इस तरह के आन्दोलनों से अरुचि हो गयी| इस अरुचि को विरोध में बदलने का काम भी खुद अरविन्द ने राजनैतिक पार्टी बनाने की घोषणा के साथ कर दिया| ये आग में घी डालने जैसा था; क्यों कि खुद अरविन्द और अन्ना ने ही पार्टी विरोधी बातें लोगों में भरी थीं| नतीजन जो लोग अन्ना के लिए जान देने तक उतारू थे वे अन्ना और केजरीवाल को अन्य राजनीतिक पार्टियों के समकक्ष ही समझने लगे| कुल मिला कर पूरे घटनाक्रम में कई लोग ठगा हुआ अनुभव करने लगे|
    इन आन्दोलनों के असफल होने का सीधा फायदा भाजपा को हुआ| चूंकि जनता सभी को आजमा कर देख चुकी थी और समझ चुकी थी कि लोकतान्त्रिक समस्याओं का हल लोकतान्त्रिक तरीकों से ही निकल सकता है; आन्दोलन या अनशन से नहीं! क्यूँ कि अनशन और आन्दोलन या तो दबा दिए जाते हैं, या फिर बहला फुसला कर शक्ति हीन कर दिए जाते हैं| इसीलिए लोगों ने अब आन्दोलनों में जमा होना बंद कर दिया| और खुद को लाचार समझ कर राम भरोसे हिन्दुस्तान छोड़ दिया| मगर एक बात जरुर थी कि लोग ये धारणा बना चुके थे कि उनकी हर समस्या की जिम्मेदार कांग्रेस की निरंतर चली आ रही सत्ता है| जो बहुमत में होने के कारण धीरे धीरे तानाशाह होती जा रही है|  ऊपर से देश के मुखिया बुत बने हुए हैं जो सिर्फ आदेशों को थोपना ही जानते है| एवं इस सत्ता को चुनाव में ही हराया जा सकता है वो भी सिर्फ भाजपा द्वारा ही| क्यों कि बाकी सभी पार्टियाँ तो कांग्रेस को ही समर्थन करने में लगी हुई हैं| और भाजपा में भी अटल जी के सन्यास लेने के बाद कोई भी राष्ट्रीय स्तर का प्रखर और सक्रिय नेता दिखता नहीं था, जो प्रचंड होकर कांगेस से मुकाबला कर सके और जिसके नाम पर एक मत हुआ जा सके| मगर गुजरात चुनाव में लगातार तीसरी बार जीत कर नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा| इसका प्रमुख कारण थी उनकी विकास आधारित राजनीति और अपने फैसलों पर अडिग रहने की आदत | लोगों को लगा कि यही वो नेता है जो उन्हें कांग्रेस के कमज़ोर और प्रभावहीन शासन से बेहतर विकल्प दे सकता है| जो विदेश नीतियों और सीमा सुरक्षा जैसे मुद्दों पर देश की ओर से आक्रामक पक्ष रख सकता है| मोदी के भक्त हालांकि अन्ना की ही तरह बने हैं मगर दोनों में अंतर इतना है कि अन्ना को लोगों ने समर्थन बिना शर्त के दिया| जबकि मोदी ने खुद को गुजरात की कसौटी पर सिद्ध किया और राष्ट्रीय छवि पायी| लोगों को मोदी से उम्मीदें हैं कि जिन मुद्दों पर कांग्रेस ने देश को ७० के दशक में धकेल दिया है, मोदी उससे उन्हें उबार सकेंगे| २००१ की भयानक त्रासदी से उबरने के साथ-साथ गुजरात ने जो उन्नति की; उसमें निश्चित ही मोदी के प्रभावी और सशक्त शासन का बड़ा योगदान है| वर्ना जनता कभी किसी को इतनी देर तक टिकने नहीं देती| ये केवल कोरी बातें नहीं बल्कि केंद्र सरकार द्वारा गुजरात को विभिन्न क्षेत्रों में प्रदान किये गये पुरुस्कारों की गवाही है| खुद योजना आयोग ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को सौर ऊर्जा पर गुजरात से प्रेरणा लेने की सलाह दी है| मोदी ने अपने भक्त खुद नहीं बनाये, ना ही लोगों का प्यार ख़रीदा है; बल्कि लोगों ने ही मोदी को 'रेम्बो' बनाया है| बहुत से काम गुजरात में मोदी ने किये, मगर उससे कहीं ज्यादा अपेक्षाएं उनसे लोगों ने कर डालीं हैं| अन्ना का वक्त था जब राजनेताओं से लोग चिढने लगे थे, और उसके बाद आज आलम ये है कि मोदी के प्रशंसक उनकी तारीफ़ में इतने ऊपर चले जाते हैं जो यथार्थ से काफी भिन्न होता है|अटल जी के बाद किसी राजनेता को इतना प्यार नहीं मिला जितना कि आज मोदी को मिल रहा है| मोदी को लोगों ने राजनेताओं के लम्बी सूची में से चुन कर राष्ट्रीय नेता बनाया है| मोदी भाजपा द्वारा मुख्यधारा में नहीं जोड़े गये हैं,बल्कि उनके लोगो ने उन्हें अपना नेता घोषित कर लिया है| सभी जानते हैं कि मोदी विरोधी लोग जितने बाहर हैं उतने ही उनकी अपनी पार्टी में भी हैं, जिन्हें मोदीभक्तों से कुढ़न होती है, ये एक सामाजिक तथ्य भी है कि जिसे ज्यादा प्यार मिलता है उससे चिढने वाले भी बढ़ जाते हैं| साफ़ शब्दों में कहें तो लोगों ने मोदी को अपना नेता चुना है और कट्टर ढंग से चुना है| आज मोदी की मांग भाजपा से अधिक हो चुकी है| इसका एक कारण उनकी हिंदुत्व और राष्ट्रवादी छवि हो सकती है मगर उनके भक्तों में श्री कलाम के समर्थक भी हैं,सलमान खान के समर्थक भी हैं, युसूफ पठान के समर्थक भी हैं | जो लोग कल अन्ना से जुड़े थे वे अंतिम विकल्प के रूप में मोदी को देख रहे हैं| इसीलिए लोग मोदी की तरफ हुए हैं, और अतिवाद की अपनी आदत के कारण मोदी भक्त कहला रहे हैं| दूसरी तरफ सत्ता बनाये रखने के लिए कांग्रेस राहुल गांधी को आगे करके पुराने गांधी परिवार के दीवानों को जोड़े रखना चाहती है| इसीलिए राहुल गांधी के भक्त तैयार किये जा रहे हैं, जिनका काम है कि मोदी को साम्प्रदायिक सिद्ध करके सेकुलरिज्म के समर्थक अपनी ओर खींचे जाएँ तथा मोदीभक्तों से अधिक संख्या बढ़ाई जाए| मगर लोगों को मोदीभक्ति की राह पर खुद कांग्रेस ने धकेला है| चाहे "विदेशी और सैन्य नीतियों की असफलताएं" हों या "आर्थिक और घरेलू नीतियों पर असंवेदनशीलता", कांग्रेस ने खुद को आम आदमी से दूर रखा और पूंजीपतियों को संरक्षण देती रही| आम आदमी की जो मूल समस्याएं हैं वे बिजली दरों और पेट्रोल-डीजल में बेहिसाब वृद्धि, अन्न पर महंगाई की मार, दिन प्रति दिन बढती बेरोज़गारी है| आम आदमी अपने भविष्य को लेकर चिंतित है क्यों कि वह जानता है कि सीमित आय में इससे ज्यादा वृद्धि असहनीय और दमघोंटू हो जायेगी! छोटे घरेलू धंधे चौपट हो जायेंगे! लैपटॉप और मोबाइल बांटने की फिजूलखर्ची सरकार जो धन लुटा रही है उसका बोझ उसी आम आदमी पर डाल दिया जाएगा| आदमी इतना डरा हुआ और निराश है कि वह फिर से सत्ता ऐसी असंवेदनशील सरकार को नहीं सौंपना चाहता | इसी भय और चीख पुकार में उन्हें जो तिनका भी लग रहा है वह सिर्फ नरेन्द्र मोदी हैं | अपने इस हाल से उबरने के लिए वह अंधभक्ति करने को भी तैयार है| क्यों कि इसके अलावा कोई और विकल्प उन्हें दिखता भी तो नहीं?

-पुष्यमित्र उपाध्याय
एटा

Saturday, July 13, 2013

उन लम्हों को,
लिखता था पन्नों पर मैं;
कुछ लिख कर छोड़ देता था...
कि फिर कभी
फुर्सत में कर दूंगा पूरा इन्हें/
भर दूंगा उन लम्हों को उठा कर इन पन्नों में/
वो पन्ने, वो लम्हे..
आवाज़ देकर बुलाते थे,
कई बार उठाये थे वो पन्ने मैंने...
पढ़े भी थे...उन लम्हों के अधूरे चेहरे/
मगर फिर छोड़ दिए;
फिर कभी के लिए !
ऐसे न जाने कितने पन्नों को,
फिर कभी का भरोसा देकर बढ़ता रहा मैं...
मगर
कई दिनों से कोई आवाज़ नही देता!
कोई बुलाता नहीं है!
ढूंढ़ता हूँ...
देखता हूँ...
पर कोई नहीं दिखता...कोई नही मिलता..
न वो पन्ने... न वो लम्हे
सब खो गये हैं शायद
कहाँ ढूंढू....कहाँ देखूं
गुज़रे हुए वो लम्हे....
और अब
ये कह कर उन्हें ढूंढना भी छोड़ दिया मैंने
....कि फिर कभी
फुर्सत में ढूंढ़ लूँगा इन्हें

-पुष्यमित्र उपाध्याय

Sunday, June 30, 2013

हम निंदा करते हैं!

कई दिनों तक कई लोगों की प्रतिक्रियाएं देखीं, ऐसा लग रहा था कि जैसे उन्हें इस आपदा पर पीड़ा तो बाद में हुई मगर ऐसे अवसर का इंतज़ार पहले से था | कई लेखकों के विषयों में आया अकाल ख़त्म हुआ, तो कुछ कवियों ने नई रचनाएँ सृजित कर डालीं| तो आलोचकों ने तो राजनीति को निर्वस्त्र करने का बीड़ा संभाल लिया!
 राजनीतिज्ञों के बारे में तो कहना ही बेकार है, मगर घोर निंदकों जिनके कि निंदा करते करते सर के बाल तक उड़ गये हैं, राजनीती से अलग "वालनीति" करते नज़र आये! अपने पोस्ट पर आते हुए लाइक्स और कमेंट्स से वे इतना उत्साहित दिखे कि पता ही नहीं चला कि उन्होंने इस निंदा-दाल में प्राकृतिक आपदा के साथ सेकुलरिज्म, माओवाद, तीसरा मोर्चा आदि वाला जीरा कहाँ से छौंक दिया!
  कई लोग आरोप प्रत्यारोप कर रहे थे, कुछ लोग कांग्रेस को गाली दे रहे थे, कुछ लोग इस आपदा का जिम्मेदार भाजपा को ठहरा रहे थे, कुछ अतिउच्च श्रेणी वाले मोह्त्यागी संत बारी बारी से दोनों को ही जिम्मेदार ठहरा रहे थे| कुछ कह रहे थे कि संतों ने भविष्यवाणी नहीं की, संत ख़राब हैं| कुछ बोले कि कोई राजनेता मदद करना नहीं चाहता, सब पाखंडी हैं| मगर जो मदद को आगे आये, उनपर राजनीति करने का आरोप लगा कर नकार दिया|  ये लोग आखिर कौन हैं जो सत्यता का प्रमाण पत्र बांटते फिरते हैं| शायद ये वो लोग हैं जो फेसबुक से उठने तक की जहमत तक नहीं उठाते, इन सभी चिंतकों का भाषणबाज़ी के अतिरिक्त क्या दायित्व हैं इन्हें नहीं पता...पता हों भी तो वे जताना नहीं चाहते कि इन्हें पता है|
  बात साफ़ सी है, मनुष्य ने अपनी सीमाएं तोड़ीं थी, उसका उत्तर प्रकृति ने दे दिया, प्रकृति अपना काम कर रही है, सेना और बचाव दल अपना काम कर रहे हैं, राजनीतिक दलों का काम राजनीति करना है, वे अपना काम कर रहे हैं| समाचार चैनल वालों का जो काम है वो ज्यादा बढ़ कर, कर ही रहे हैं|
  मगर आपने क्या किया? आप किस अधिकार और किस साक्ष्य के आधार पर संतों आदि पर धन सम्बन्धी समीक्षा कर रहे हैं? क्या संत अपना काम नहीं कर रहे? क्या संघ और अन्य संगठन निष्क्रिय बैठे हैं? क्या अखबार निष्क्रिय बैठे हैं? क्या सरकारें निष्क्रिय बैठी है? हाँ प्रबंधन में थोड़ी चूक हुई, वो भी राज्य सरकार की लाभ लेने की मंशा के कारण, जिसे आपदा प्रबंधन मंत्री ने स्वीकार भी किया | मगर अभी तक कोई घोटाला होना या गबन होना सामने नहीं आया, लेकिन पूरी तरह इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता| फिर भी आपको ये कतई अधिकार नहीं कि आप अपनी ख्याति चमकाने के लिए जो जी में आये वो जानकारी उत्पन्न कर दो | यहाँ जरुरत थी सौहार्द और एकता प्रदर्शित कर के जवानों, राजनीतिज्ञों और सहयोगियों के हौसलों को बढाने की| मगर ऐसी कोई भूल निंदकों ने नहीं की| उन्हें जो मिला जैसा समझ में आया उन्होंने वो प्रचार किया| ये निहायत ही बेहूदा और अप्रशंश्नीय कृत्य है!
  एक उदाहरण रामदेव से सम्बंधित है: निंदक पहले बोले कि रामदेव कहाँ हैं? जब रामदेव को सक्रिय पाया तो बोले, कि उन्होंने क्या योगदान किया, जब योगदान उजागर हुआ तो पतंजलि का सालाना टर्नओवर निकाल लाये और बोले कि ये पैसा ठीक से नहीं दे रहे|
 परिणाम स्वरुप लोग जो राहत राशि देने के लिए आगे आ रहे थे, उन्होंने विभिन्न माध्यमों को संशय की द्रष्टि से देखा!
रामदेव सिर्फ उदाहरण मात्र हैं, इसी तरह एक नियोजित ढंग से हर किसी पर कीचड उछालना जारी था, हालांकि कुछ "राजनीति कुमारों" को फुर्सत वास्तव में नहीं मिली थी| मगर फिर भी निंदकों ने हर संगठन के प्रति  अविश्वास और गलत मंशा का जो भाव संचारित किया वो ठीक नहीं था| जब देश में आपदा आई हो तो अधिकतम मदद और सहयोग को धन्यवाद के साथ स्वीकार किया जाना चाहिए, चाहे फिर वह परायों द्वारा ही क्यों न दी गयी हो क्यों कि उस समय देशवासियों का हित सर्वोपरि होता है | ऐसे में संस्थाओं पर आरोप लगाना, बदनाम करना एक उदासीन रवैये को जन्म देने जैसा ही है| कई लोग पीछे हट जाते हैं ये सोच कर कि कहीं हमारी मंशा पर भी प्रश्न ना खड़े हो जाएँ! जब कि होना ये चाहिए कि प्रतियोगी माहौल उत्पन्न किया जाए, दान दाताओं का हौसला बढाया जाए जैसा कि कुछ अखबार कर भी रहे हैं| जिससे लोग होड़ लगा कर मदद करें| और अधिक से अधिक राहत सामग्री जुटाई जा सके!

-पुष्यमित्र उपाध्याय


Friday, June 7, 2013

जाग-जाग कर गदहे हारे, विजय कहो कब पाई है
सोवत सोवत सिंह भये नृप, जग ने कीरति गाई है

Tuesday, June 4, 2013

आसमाँ पर नजर रखते है हम


रात का भूला हिस्सा

रात जवां होके ढलने को है
हवा हर अदा खेल चुकी
तारों ने समेट ली नुमाईश अपनी
चाँद ने भी ढूंढ़ लिया एक कोना
बारात लौट जाने के बाद उतरने लगती है जैसे रौनक
सिमटने लगतीं हैं झालरें
अजीब सा सन्नाटा पसरा है सड़कों पर
कोने गूंजते हैं
जैसे किसी खूंखार जानवर के नुकीले दांतों से गुज़रती हुई साँसों का शोर
जैसे कराहता कोई परिंदा
ना नींद ....न बेचैनी
बस वक़्त का एक टुकडा
रात का एक हिस्सा
कहानियों में उपेक्षित
प्रेम से निष्कासित
कविताओं से भूला
ये पहर
देखता हूँ रात को भी इस वक़्त में तनहा
देखता हूँ मौन को चीखते हुए.....

-पुष्यमित्र उपाध्याय

Tuesday, May 7, 2013

रिश्ते रबर के से होते हैं

कभी महसूस करना
रिश्तों की डोर रबर की होती है
या रिश्ता ही रबर का होता है
जितना दूर जाओगे...खिंचाव बढेगा
दोनों सिरे एक दूसरे से मिलने को और बेताब होंगे
यूं कि मानों छोड़ देने पर,
सब दूरियों को मिटाते हुए जा मिलेंगे एक दूसरे से
जितनी दूरी....... उतनी मिलने की बेताबी......
मगर ये बेताबी बढ़ते बढ़ते,
जब आदत बन जायेगी
तो टूट जायेगी रबर की डोर
कभी महसूस करना
रिश्ते रबर के से होते हैं.....


    पुष्यमित्र उपाध्याय
  

Sunday, May 5, 2013

कौन मैं? कैसा मैं

 सुना है साहब ने मामा पद से इस्तीफा दे दिया है, और कोई विकल्प ही
कहाँ छोड़ा था जमाने ने? अब किसी मंत्री को अपने सम्बन्ध भी ठीक से निभाने
नहीं दिए जाते| और वैसे भी जो रिश्वत के मामले में पकड़ा जाए, उससे मंत्री
जैसे पवित्र तत्व का कोई रिश्ता हो ही नहीं सकता.."कौन भांजा कैसा
भांजा"? मैंने सुना है छोटे  भी लपेटे में लिए जा रहे हैं अब लगता है
मंत्री जी को पिता और चाचा पद से भी क्रमशः इस्तीफ़ा देना पड़ सकता है! कौन
बेटा कौन भतीजा? मगर दुविधा तब ज्यादा बढ़ जायेगी जब खबर ये आएगी कि
मंत्री जी भी लपेटे में आ चुके हैं|  तब शायद ये घोषणा करवानी पड़े " मेरा
खुद से कोई वास्ता नहीं है"... "कौन मैं? कैसा मैं?" मैं सिर्फ मंत्री
हूँ बिल्कुल शुद्ध और पवित्र तत्व, मेरा किसी अंसल बंसल से कोई रिश्ता
नहीं|

    यहाँ पार्टी आला कमान भी शोक और विषाद में डूबा है, जल्दी जल्दी
प्रवक्ता भी बदल डाले| बात ही नहीं समझा पा रहे थे दुनिया को! भई हम
कितना हैरान और कलंकित महसूस कर रहे हैं ये हम ही जानते हैं| हमारी
पार्टी का मंत्री ऐसा काम कर ही नहीं सकता| टू जी, कोयला, कॉमनवेल्थ,
इसरो जैसे कीर्तिमान बनाने के बाद इतनी मामूली पारी हमारा आदमी तो खेल ही
नहीं सकता...कैसे मान लें? हमारी पार्टी ने तो 'आदर्श' प्रस्तुत किया है
इस क्षेत्र में| हमारा मंत्री उन कीर्तिमानों की अवहेलना तो कतई नहीं कर
सकता| और अगर ऐसा किया है तो विकलांगों वाली लूट के बाद ये दूसरी सबसे
छोटी पारी होगी| "जिसकी हम कड़ी निंदा करते हैं" ! किसी को भी ये हक नहीं
कि वह पार्टी के आदर्शों को कलंकित करे...चाहे वह कोई भी हो|

 हम हर बात पर मौन रह सकते हैं| मगर ये आचरण बिल्कुल बर्दाश्त नहीं किया
जाएगा| अब इतनी छोटी सी रकम में बटवारा कैसे हो सकता है? शर्म आनी चाहिए
मंत्री जी को, पार्टी में विवाद पैदा करवाना चाहते हैं| और ये सुप्रीम
कोर्ट भी अजीब है, पता नहीं हमारी बिल्ली को कौन सी घुट्टी पिला दी है,
जो हमारे ही पीछे पड़ गयी है| हमारे घर की समस्या थी हम ही साल्व कर लेते|
ना जाने क्या बात है कि हमारे हर काम में दखल देने चले आते हैं| अरे हो
जाने देते प्रमोशन, किसी का भला ही होता| हाँ माल तो कम था मगर ये पार्टी
का अंदरूनी मामला था, हम लोग ऐडजस्ट कर लेते|

  उधर वो विपक्ष! हे भगवान्...बात बात पे इस्तीफ़ा दो! क्यों दें भई?तुमसे
लिया था क्या हमने मंत्रालय? जैसे और कुछ तो है नहीं हमारे पास देने को?
इस्तीफा दो! इस्तीफ़ा दो! ये भी कोई बात हुई? कुछ और ले लो मगर चुप्प रहो|
वैसे भी तमाम जमाने की टेंशन है हमें| चुनाव सर पे है, फण्ड ना जुटाएं तो
क्या करें? तुम्हे इस्तीफ़ा दे दें तो क्या तुम हमारी तरफ से पैसा
बांटोगे? चुनाव में कार्यकर्ता पनीर मांगेंगे तो क्या तुम खिलाओगे? सरकार
की अपनी समस्याएं होतीं हैं, राजनीतिक मजबूरियाँ होतीं हैं| सोच समझ कर
निदान किया जाता है| ऐसे ही थोड़ी भांजे ने कुर्बानी दी? अभी हम सिर्फ इस
बात पे फोकस कर रहे हैं कि मंत्री जी ने इतनी छोटी रेलगाड़ी तो नहीं चलाई
होगी, इससे पहले वो कितने प्रमोशन्स को ग्रीन सिग्नल दे चुके हैं इस बात
पर भी रोज़ बैठकें हो रहीं हैं| हम उम्मीद करते हैं कि मंत्री जी ने इतना
तो किया होगा जिससे पार्टी के रिकॉर्ड और नाक दोनों बचे रहें| और हाँ
इस्तीफ़ा बिल्कुल नहीं देंगे...बिल्कुल भी नहीं....मांगना भी मत|

-पुष्यमित्र उपाध्याय
     एटा

Thursday, May 2, 2013

भूकंप

हे भगवान्! ये भूकंप फिर डरा गया, ऐसा लगा जैसे कोई नीचे से कुर्सी छीनने की कोशिश कर रहा हो| अगर कुर्सी छूट जाती तो मैडम को क्या आन्सर देता?
शुक्र है सिर्फ भूकंप ही था, बस जमीनी मामला था| मगर कित्ती बार भी ट्राई कर ले मैं कुर्सी से उतर के नहीं भागूँगा.. हाँ! रुको अभी आने दो पत्रकारों को मैं कड़ी निंदा करता हूँ| आने दो दिग्गी भाई को उनसे भी कहूँगा पता लगाओ किसका हाथ है ये जमीन हिलाने में?
उधर वो बौना पार्टी तम्बू ला ला के लगा रही है, यहाँ लोग मुझसे पूछ रहे हैं कि तम्बू क्यों लगा रहे हैं? मुझे क्या पता क्यों लगा रहे हैं? मैंने क्या हर तम्बू वाले का ठेका ले रखा है? लद्दाख वालो का रीजनल मामला है वो ही जानें; मैं दिल्ली छोड़ कर कहीं नहीं जाऊँगा! नहीं जाऊँगा! नही जाऊँगा! बात बात पर कुर्सी मत हिलाया करो, मेरी भी कुछ जवाबदारी है| मैडम से क्या कहूँगा? मगर तुम लोग ज्यादा जिद कर ही रहे हो कि मैं तुम्हारे रीजनल मैटर में इंटरफेयर करूं; तो फिर “मैं इस तम्बू लगाने वाली कम्पनी की कड़ी निंदा करता हूँ” बिना किसी डील के वो तम्बू कैसे लगा सकते हैं? हमने क्या मना किया है लगाने से? वाल मार्ट का भी लगवाया था| मगर डील के बाद|
और वो बिना कोई इन्वेस्टमेंट के तम्बू लगाके बैठ गये जिसका मुझे खेद है| मैं भगवान् से प्रार्थना करूँगा कि अगला भूकंप लद्दाख के उसी उन्नीसवें किलोमीटर पे इत्ता जोरदार आये कि सब टेंट तम्बू सहित बौना पार्टी जमीन में घुस जाए और हाँ किसी तरह वो कोयले वाली फाइल भी उसी में दब जाए
बड़ा परेशान किया है उस फाइल ने| अरे चिन्हा ने मुझे दिखा दी तो क्या बुरा किया? मुझे ही तो दिखाई है कौन सा मुशर्रफ को दिखाई है? आखिर मैंने हेल्प ही तो की उसकी फाइल को करेक्ट करके| सुप्रीम कोर्ट तो मुझे ऐसे डांटने लगता है जैसे मैडम हो| अबकी बार देखियो संसद में प्रस्ताव लाऊंगा कि सुप्रीम कोर्ट को पीऍम के अन्डर किया जाए| फिर मज़ा आएगा जब मैडम सुनाएंगी सुप्रीम कोर्ट को खरी खरी| तब तक ये भूकंप सुप्रीम कोर्ट को डराए मैं कुर्सी छोड़ कर कहीं नही जाऊँगा…बिलकुल भी नही|

-पुष्यमित्र उपाध्याय
एटा