Wednesday, January 26, 2011

जिन्दगी

जाने कहाँ अफसोस में रही जिन्दगी,
जिन्दगी भर रेत सी बही जिन्दगी|

दीयों की तलाश में,अंधेरो के पास में,
ना जाने कितने बोझ सही जिन्दगी|

बिता दी हर साँझ एक सूरज के विरह में,
लोग भी कहते हैं कि ये है नहीं जिन्दगी|

इतने क़त्ल देख लिए हैं अपने अरमानों के,
कभी बयां, तो कभी चुप रही जिन्दगी |

किसी ने कहा बाज़ार में बिकता है ईमान भी अब,
हमने पूछा मिलती भी है क्या कहीं जिन्दगी|

मोहब्बत के सौदे में भाव लगा दिए अपने,
बड़ी सस्ती है शायद यहीं जिन्दगी

सोचा कि ख़त्म करें अब इस वहशत के सफ़र को,
पर हाथ में उम्मीद लिए आ गयी फिर वही जिन्दगी|

1 comment:

  1. अपने वफ़ा के वादों का उसने कुछ यूँ सिला दिया,
    कि शक भी मुझे हुआ नही और यकीं दिला दिया.....

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