Friday, February 1, 2019

कोई बहुत देर ठहरा है मुझमें


इक हश्र है जो बरपा है मुझमें,
कोई बहुत देर ठहरा है मुझमें...

हसरतें खौफ़नाक फिरती हैं,
सुकून सहमा-सहमा है मुझमें..

ए कश्ती मैं तेरा समन्दर नहीं,
बड़ी दूर तलक सहरा है मुझमें..

मुझे तो मैं भी नहीं मिलता,
तुझे क्या मिलता है मुझमें?

यहां के लोग तो कहीं और गए,
गर्द-ओ-कांच सा बिखरा है मुझमें...

बुरी नज़रों से महफूज़ रहता हूँ,
उसकी नज़रों का पहरा है मुझमें..
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