Friday, January 15, 2021

किसी किस्से के हिस्से से......'मोड़'

"पंडित जी हमें पता है हम काले हैं, मगर हमारा दिल एक दम गोल्डन है......" चाभी में बंधी एक लम्बी डोरी को गोल-गोल घुमाते हुए, अंकित अपनी बिछड़ी मुहब्बत की दास्ताँ सुनाने में डूबा हुआ था। शाम हो चुकी थी, कोचिंग से लौटते वक़्त हम लोग रोज़ाना की तरह कोने वाले गुप्ता जी की स्टफ्ड पैटीज़ खाकर, घर की तरफ बढ़ रहे थे।

"हम्म.. सही कह रहे हो अंकित जी" मैं किसी और उधेड़बुन में आधी कहानी सुनता-समझता साथ-साथ चले जा रहा था। इसी दरम्यान पीछे से आती हुई एक स्कूटी हमारे पास से गुज़रती है और अगले ही मोड़ पर टर्न लेकर रुक जाती है। 

"पंडित जी हमारे पास भी स्कूटी होती तो मज़ा ही आ जाता" अंकित देखते ही बोला। इस स्कूटी को पहचानता था मैं, और मोड़ भी पास था तो यकीन आने में देर न लगी।

"अरे ये तो वही है!" मैं खुद ही बोल पड़ा।  

"कौन वही?" अंकित ने उत्सुकता में पूछा

"जहाँ मेरा रूम है उसी मोहल्ले में रहती हैं ये! बड़े दंगे कराये हैं इनकी खूबसूरती ने।"  बिना मंज़र से नज़र हटाए मैं अंकित को बता रहा था।

"वो तो ठीक है मगर यहाँ क्यों खड़ी हैं मैडम?" मैंने खुद ही सवाल किया और खुद ही जवाब दे दिया "शायद इंतज़ार कर रही होंगी किसी का"

अंकित की प्रेम कथा और मेरी उधेड़बुन एक नई जिज्ञासा पर म्यूट हो गयीं थीं। अब हम एकदम करीब आ चुके थे; उसने अपना चश्मा नहीं उतारा था, सो पता नहीं चला कि इंतज़ार किस तरफ का किया जा रहा है। हालांकि उसके बारे में ज्यादा नहीं जानता था मैं... बस बालकनी में खड़े हुए, अक्सर उसे घर के आगे से गुज़रते देखा था। उसके नाम पर होने वाले झगड़ों के बारे में सुना था मैंने। 

पहली बार था, जो इतना करीब से देख रहा था उसे। सर्दियों की धूप में बर्फ जैसे चमकते चेहरे पर होठों की सुर्खियां, एक हसीन संजीदगी को संभाले ठहरी हुईं थी। फूल-पत्तियों से कढ़े विंटर कैप से बाहर झूलती उसकी जुल्फें पीठ पर कसे बैग को आगोश में लिए बहक रहीं थी। जिसे कभी नज़र भर देखा भी नहीं था, आज उससे नजर नहीं हट रही थी....। उसके लिए होने वाले झगड़े जायज ही लग रहे थे..... इस ख्वाब के लिए तो कोई उम्र भर भी लड़ता रहे...। इन्हीं सब ख्यालों में वो मोड़ कब गुज़र गया पता ही नहीं चला, मगर जेहन में अभी भी यही सवाल था कि आखिर ये किसका इंतजार कर रही होगी?

आगे बढ़ आये थे हम, और अंकित ने अपनी रुकी हुई प्रेम-कथा शुरू की ही थी, कि अचानक पीछे से फिर स्कूटी की आवाज़ आई और हमारे दाएं से गुज़रती हुई, अगले मोड़ पर जाकर फिर ठहर गई। अंकित बोलते-बोलते रुक गया था, और मैं समझ नहीं पा रहा था कि बोलना क्या है। 

"पंडित जी तुम हमसे कुछ छुपा तो नहीं रहे?" अंकित ने चाभी को घुमाते हुए शंकित अंदाज़ में पूछा..

"अरे कुछ भी कहते हो अंकित जी! तुमसे कुछ छुपाया है...? ये हमारे लिए नहीं है, हमने तो कभी देखा भी नहीं है इसे ठीक से...." अंकित को जवाब देते-देते मेरी खुद की जिज्ञासा बढ़ने लगी थी। मन में एक खामोश सा शोर उठने लगा था।

तसल्ली करने के लिए पीछे मुड़कर बड़बड़ाते हुए देखा "कौन है भईया किसका इंतजार है।" और देखा-अनदेखा करते हुए उसके पास से होकर मोड़ को पार कर लिया। 

मोड़ तो पार हो गया, मगर इस बार देरी न हुई और स्कूटी स्टार्ट होकर एक तेज़ एक्सेलरेटर लेते हुए फिर से हमारे अगले मोड़ पर पहुँच कर रुक गयी। इस बार इंजन स्टार्ट ही रखा गया था, हम आगे बढ़ते हुए करीब पहुंचते जा रहे थे। देखा तो बर्फ की रंगत गुस्से में गुलाबी पड़ चुकी थी....... उसने आँखों से चश्मा हटा दिया था......पहली बार उसकी कंजी आँखों को देख रहा था मैं....और एक तल्ख़ नाराज़गी के सिवा कुछ नज़र नहीं आया, मगर इस बार नज़र नहीं फे......; देखता ही रहा उसकी गुस्सैल आँखों को।

"ऐसा है पंडित जी, बनाओ मत! अब हम तुम्हारे साथ नहीं आया करेंगे, तुम हमें कुछ नहीं बताते हो, हमारी सब उगलवा लेते हो!" अंकित ने मज़ाकिया होकर तंज छोड़ दिया।

"हम जा रहे हैं अब, इससे आगे के मोड़ तुम अकेले ही पार करो!"

इसी गली में अंकित का घर था, वो अपने घर की तरफ मुड़ गया और मैं ये मोड़ भी बिना रुके, बिना एक लफ्ज़ कहे पार कर आया था। अगला मोड़ थोड़ा दूरी पर था! दूर दिशाएं डूब रही थीं...क्षितिज धुंधला पड़ रहा था... एक बेखयाली में कदम बढ़ रहे थे, दिमाग में कुछ न था; न सवाल, न शंका, न कोई उधेड़बुन....।  

पिछले मोड़ पर स्कूटी स्टार्ट हो गयी थी और ज़ुल्फ़ों को लहराती हुई, दूर उस अगले मोड़ पर जाकर ठहर चुकी थी। शाम की सर्दी तल्ख़ होने लगी थी, और हवाएं मीठे से नश्तर लिए सीने में उतरने लगी थीं......

किसी किस्से के हिस्से से...... ©

#PushYam

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